अध्ययन लेख 24
ऐसी हर दलील उलट दीजिए जो परमेश्वर के ज्ञान के खिलाफ है!
“हम ऐसी दलीलों को और हर ऐसी ऊँची बात को जो परमेश्वर के ज्ञान के खिलाफ खड़ी की जाती है, उलट देते हैं।”—2 कुरिं. 10:5.
गीत 124 हमेशा वफादार
लेख की एक झलकa
1. प्रेषित पौलुस ने अभिषिक्त मसीहियों को क्या चेतावनी दी?
प्रेषित पौलुस ने खबरदार किया, “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो।” (रोमि. 12:2) उसने यह चेतावनी किसे दी? पहली सदी के मसीहियों को, जो परमेश्वर को समर्पित थे और जिनका पवित्र शक्ति से अभिषेक हो चुका था। आखिर उसने इतने कड़े शब्दों में उन्हें क्यों खबरदार किया?—रोमि. 1:7.
2-3. (क) शैतान किस तरह हमें यहोवा से दूर ले जाने की कोशिश करता है? (ख) जो बातें हमारे मन में “गहराई तक समायी हुई” हैं, उन्हें कैसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है?
2 ऐसा मालूम होता है कि कुछ मसीहियों पर शैतान की दुनिया के गलत विचारों और सोच का असर होने लगा था, इसीलिए पौलुस ने यह चेतावनी दी। (इफि. 4:17-19) दुनिया का असर आज हम पर भी हो सकता है। इस दुनिया का ईश्वर शैतान हमें यहोवा से दूर ले जाना चाहता है और इसके लिए वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। जैसे, अगर हमारा झुकाव दुनिया में नाम और शोहरत कमाने की तरफ है, तो वह इसी का फायदा उठाकर हमें यहोवा से दूर ले जाने की कोशिश करता है। या फिर हम जिस संस्कृति और माहौल में पले-बढ़े होते हैं और हमने जो शिक्षा ली है, उसकी कुछ बातों का इस्तेमाल करके वह हमारी सोच अपने जैसी बनाना चाहता है।
3 हमारे मन में जो बातें “गहराई तक समायी हुई” हैं, क्या उन्हें जड़ से उखाड़ना मुमकिन है? (2 कुरिं. 10:4) ध्यान दीजिए कि पौलुस ने क्या कहा, “हम ऐसी दलीलों को और हर ऐसी ऊँची बात को जो परमेश्वर के ज्ञान के खिलाफ खड़ी की जाती है, उलट देते हैं और हरेक विचार को जीतकर उसे कैद कर लेते हैं ताकि उसे मसीह की आज्ञा माननेवाला बना दें।” (2 कुरिं. 10:5) जी हाँ, यहोवा की मदद से हम गलत सोच और विचारों को अपने दिलो-दिमाग से निकाल सकते हैं। जिस तरह दवा से ज़हर को काटा जा सकता है, उसी तरह परमेश्वर का वचन शैतान की दुनिया के ज़हरीले असर को काट सकता है, उसे खत्म कर सकता है।
“नयी सोच पैदा करो”
4. सच्चाई सीखने पर हममें से कइयों ने क्या बदलाव किए?
4 ज़रा सोचिए, जब आपने सच्चाई सीखी और यहोवा की सेवा करने का फैसला किया, तब आपने अपने अंदर क्या-क्या बदलाव किए। हममें से कई लोग शायद कुछ गलत काम कर रहे थे और हमने उन्हें करना छोड़ दिया। (1 कुरिं. 6:9-11) हम यहोवा के कितने एहसानमंद हैं कि उसने बुरे काम छोड़ने में हमारी मदद की!
5. रोमियों 12:2 के मुताबिक हमें कौन-से दो कदम उठाने हैं?
5 भले ही हमने गंभीर पाप करना छोड़ दिया है और हमारा बपतिस्मा हो चुका है, लेकिन हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें कोई और बदलाव करने की ज़रूरत नहीं है। हमें अब भी ऐसी हर बात से दूर रहना है, जो वापस पाप की राह पर ले जा सकती है। इसके लिए हमें क्या करना होगा? पौलुस कहता है, “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो, मगर नयी सोच पैदा करो ताकि तुम्हारी कायापलट होती जाए।” (रोमि. 12:2) इस वचन के मुताबिक हमें दो कदम उठाने हैं। पहला, हमें इस दुनिया के मुताबिक खुद को “ढालना बंद” करना है यानी दुनिया की सोच या नज़रिया अपनाने से दूर रहना है। दूसरा, हमें ‘नयी सोच पैदा करनी है ताकि हमारी कायापलट होती जाए।’
6. मत्ती 12:43-45 में दर्ज़ यीशु की बात से हम क्या सीखते हैं?
6 पौलुस ने जब कायापलट की बात की, तो वह सिर्फ बाहरी रूप बदलने की बात नहीं कर रहा था। इस कायापलट का हमारी शख्सियत के हर पहलू पर असर होता है। (“कायापलट हुई या रूप धारण किया?” नाम का बक्स देखें।) पौलुस के कहने का मतलब था कि हमें नयी सोच पैदा करनी है यानी अपना रवैया, अपनी भावनाएँ और मन का रुझान बदलना है। इस वजह से हममें से हरेक को खुद से पूछना चाहिए, ‘क्या मैं मसीही बनने के लिए सिर्फ ऊपरी तौर पर बदलाव कर रहा हूँ या मैं अंदर से बदलाव करके सच में मसीही बन रहा हूँ?’ इन दोनों बातों में जो फर्क है, वह बहुत मायने रखता है। यह हमें यीशु की उस बात से पता चलता है, जो मत्ती 12:43-45 में दर्ज़ है। (पढ़िए।) यीशु की बात से हम एक ज़रूरी सबक सीखते हैं। वह यह कि हमें न सिर्फ मन से बुरे विचार निकालने हैं, बल्कि उसे परमेश्वर के विचारों से भरना भी है।
‘अपनी सोच और नज़रिए को नया बनाते जाओ जो तुम पर हावी है’
7. हम अपने अंदर के इंसान को कैसे बदल सकते हैं?
7 क्या अपने अंदर के इंसान को सचमुच बदला जा सकता है? परमेश्वर का वचन बताता है, “तुम्हें अपनी सोच और अपने नज़रिए को नया बनाते जाना है जो तुम पर हावी है और नयी शख्सियत को पहन लेना चाहिए, जो परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक रची गयी है और नेक स्तरों और सच्ची वफादारी की माँगों के मुताबिक है।” (इफि. 4:23, 24) इससे पता चलता है कि हम खुद को अंदर से बदल सकते हैं, लेकिन यह बदलाव करना आसान नहीं है। वह इसलिए कि यहाँ सिर्फ बुरी इच्छाओं को दबाने या गलत काम बंद करने की बात नहीं की गयी है। हमें अपनी ‘सोच और नज़रिए को जो हम पर हावी है,’ बदलना होगा। इसमें हमारी इच्छाएँ, हमारा बरताव और इरादे शामिल हैं। इस बदलाव के लिए हमें लगातार मेहनत करनी होगी।
8-9. एक भाई के अनुभव से कैसे पता चलता है कि खुद को अंदर से बदलना ज़रूरी है?
8 एक भाई के उदाहरण पर ध्यान दीजिए, जो सच्चाई सीखने से पहले बहुत मार-पीट करता था। जब से उसने बाइबल सीखना शुरू किया, उसने शराब पीना और झगड़ा करना छोड़ दिया। फिर उसने बपतिस्मा ले लिया। उसके इस बदलाव से आस-पड़ोस के लोगों को अच्छी गवाही मिली। लेकिन बपतिस्मे के कुछ ही समय बाद एक शाम अचानक ऐसे हालात खड़े हुए, जिससे उसकी परख हुई। नशे में धुत एक आदमी उसके घर आया और लड़ने के लिए उसे चुनौती देने लगा। पहले तो भाई ने अपना आपा नहीं खोया और उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। मगर जब उस आदमी ने यहोवा के बारे में बुरा-भला कहा, तो भाई से रहा नहीं गया और उसने उस आदमी की खूब पिटाई की। आखिर उससे ऐसी गलती क्यों हुई? उसने बाइबल का अध्ययन करके अपने खूँखार स्वभाव पर तो काबू पाया था, मगर उसके अंदर का इंसान नहीं बदला था। उसके दिलो-दिमाग पर अब भी पहले जैसी सोच और नज़रिया हावी था।
9 लेकिन भाई ने हार नहीं मानी, वह खुद को बदलने की कोशिश करता रहा। (नीति. 24:16) प्राचीनों की मदद से वह अच्छी तरक्की करता गया और आगे चलकर प्राचीन की ज़िम्मेदारी सँभालने के योग्य बना। फिर एक शाम राज-घर के बाहर उसके सामने कुछ वैसे ही हालात खड़े हुए जैसे सालों पहले हुए थे। एक शराबी आकर एक प्राचीन को पीटनेवाला था। इस पर भाई ने क्या किया? उसने अपना आपा नहीं खोया और वह बड़ी नम्रता से शराबी को समझाने लगा। उसने उस आदमी को शांत कराया और फिर उसे घर भी छोड़ आया। इस बार भाई हालात का सामना अच्छे से क्यों कर पाया? इसलिए कि उस पर जो सोच और नज़रिया हावी था, उसे उसने बदला था। अब वह सचमुच शांत और नम्र स्वभाव का इंसान बन गया था। इससे यहोवा की महिमा हुई!
10. खुद को अंदर से बदलने के लिए हमें क्या करना होगा?
10 इस तरह के बदलाव रातों-रात नहीं होते, न ही ये बिना मेहनत के हो जाते हैं। हमें शायद सालों तक “जी-जान से कोशिश” करनी पड़े। (2 पत. 1:5) ऐसा भी नहीं है कि “सच्चाई में” लंबे समय तक रहने से ये बदलाव अपने-आप होते रहेंगे। हमें खुद को अंदर से बदलने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। इसमें कुछ बातें हमारी मदद कर सकती हैं। आइए उन बातों की गहराई से जाँच करें।
जो सोच और नज़रिया हम पर हावी है, उसे कैसे बदलें?
11. जो सोच और नज़रिया हम पर हावी है, उसे बदलने के लिए प्रार्थना करना क्यों ज़रूरी है?
11 प्रार्थना सबसे पहला और ज़रूरी कदम है। हमें उसी तरह प्रार्थना करनी चाहिए, जैसे भजन के एक लेखक ने की, “हे परमेश्वर, मेरे अंदर एक साफ दिल पैदा कर, मन का एक नया रुझान दे कि मैं अटल बना रहूँ।” (भज. 51:10) हमें यह कबूल करना चाहिए कि जो सोच और नज़रिया हम पर हावी है, उसे हमें बदलना है और इसके लिए हमें यहोवा से मदद माँगनी चाहिए। हम क्यों यकीन रख सकते हैं कि यहोवा हमारी मदद करेगा? ध्यान दीजिए कि उसने यहेजकेल के दिनों में हठीले इसराएलियों के बारे में क्या वादा किया था। उसने कहा, “मैं उन सबको एकता के बंधन में बाँधूँगा और उनके अंदर एक नया रुझान पैदा करूँगा . . . मैं उन्हें एक ऐसा दिल दूँगा जो कोमल होगा [यानी ऐसा दिल जो परमेश्वर का मार्गदर्शन मानने को तैयार होगा]।” (यहे. 11:19, फु.) बदलाव करने में यहोवा उन इसराएलियों की मदद करने के लिए तैयार था। इससे हमें भरोसा मिलता है कि वह हमारी भी मदद करेगा।
12-13. (क) भजन 119:59 के मुताबिक हमें किन बातों पर मनन करना चाहिए? (ख) हमें खुद से कौन-से सवाल करने चाहिए?
12 दूसरा ज़रूरी कदम है, मनन करना। जब हम हर दिन परमेश्वर का वचन पढ़ते हैं, तो हमें उस पर गहराई से मनन करना चाहिए ताकि हम जान सकें कि हमें अपने अंदर कौन-से विचारों और भावनाओं को बदलना है। (भजन 119:59 पढ़िए; इब्रा. 4:12; याकू. 1:25) यह ज़रूरी है कि हम ऐसे हर विचार और भावना को पहचानें जिस पर दुनियावी सोच का असर हुआ है। हमें अपनी कमज़ोरियाँ कबूल करनी चाहिए और फिर उन पर काबू पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।
13 उदाहरण के लिए हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘क्या मेरे दिल में थोड़ी-सी भी जलन या ईर्ष्या की भावना है?’ (1 पत. 2:1) ‘क्या मुझे अपनी परवरिश, शिक्षा या दौलत पर घमंड है?’ (नीति. 16:5) ‘क्या मैं उन लोगों को कमतर समझता हूँ, जिनकी हैसियत मेरी जितनी नहीं है या जो दूसरी जाति से हैं?’ (याकू. 2:2-4) ‘क्या मैं उन चीज़ों को पसंद करता हूँ, जो शैतान की दुनिया मेरे सामने पेश करती है?’ (1 यूह. 2:15-17) ‘क्या मैं अनैतिक किस्म का या हिंसा से भरा मनोरंजन पसंद करता हूँ?’ (भज. 97:10; 101:3; आमो. 5:15) इन सवालों के हम जो जवाब देंगे, उनसे शायद हमें एहसास हो कि हमें कहाँ सुधार करना है। जब हम “गहराई तक समायी हुई” भावनाओं या विचारों को जड़ से उखाड़ फेंकते हैं, तो हम अपने पिता, यहोवा का दिल खुश करते हैं।—भज. 19:14.
14. अच्छी संगति करना क्यों ज़रूरी है?
14 तीसरा ज़रूरी कदम है, अच्छी संगति करना। चाहे हमें एहसास हो या न हो, हम जिस तरह के लोगों से संगति करते हैं, उनका हम पर गहरा असर होता है। (नीति. 13:20) नौकरी की जगह पर या स्कूल में हम ऐसे लोगों के बीच रहते हैं, जो परमेश्वर के जैसी सोच रखने का बढ़ावा नहीं देते। लेकिन मसीही सभाओं में हमें सबसे अच्छे किस्म के दोस्त मिलते हैं। ये दोस्त हमें “प्यार और भले काम” करने के लिए उभारते हैं या हमारा जोश बढ़ाते हैं।—इब्रा. 10:24, 25, फु.
“विश्वास में मज़बूती” पाओ
15-16. शैतान किस तरह हमारी सोच भ्रष्ट करने की कोशिश करता है?
15 यह बात कभी मत भूलिए कि शैतान ने हमारी सोच भ्रष्ट करने की ठान ली है। परमेश्वर के वचन का हमारी सोच पर जो अच्छा असर होता है, उसे बेअसर करने के लिए वह हर तरह की दलीलें इस्तेमाल करता है।
16 शैतान हमसे भी कुछ वैसा ही सवाल करता है, जो उसने अदन के बाग में हव्वा से किया था: “क्या यह सच है कि परमेश्वर ने तुमसे कहा है . . . ?” (उत्प. 3:1) शैतान की दुनिया में अकसर लोग हमसे ऐसे सवाल करते हैं, जिससे शायद हमारे मन में अपने विश्वास को लेकर शंका पैदा हो। जैसे, ‘क्या यह सच है कि परमेश्वर समान लिंग के व्यक्तियों का शादी करना गलत मानता है? क्या परमेश्वर सच में नहीं चाहता कि आप क्रिसमस और जन्मदिन मनाएँ? क्या यह सच है कि परमेश्वर खून चढ़वाने से मना करता है? क्या प्यार करनेवाला परमेश्वर सच में चाहता है कि आप अपने उस अज़ीज़ से संगति न करें, जिसका बहिष्कार हो गया है?’
17. (क) बाइबल की शिक्षाओं को लेकर अगर हमारे मन में सवाल उठते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? (ख) ऐसा करने पर नतीजा क्या होगा, जैसे कुलुस्सियों 2:6, 7 में बताया गया है?
17 हम जिन शिक्षाओं को मानते हैं, उन पर हमें पूरा यकीन होना चाहिए। इनके बारे में अगर हमारे मन में कोई सवाल उठता है, तो हमें उसका जवाब ढूँढ़ना चाहिए वरना हमारे मन में शंकाएँ बढ़ सकती हैं। ये शंकाएँ धीरे-धीरे हमारी सोच भ्रष्ट कर सकती हैं और हमारा विश्वास मिटा सकती हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? परमेश्वर का वचन बताता है कि हमें नयी सोच पैदा करनी चाहिए ताकि हम परखकर खुद के लिए मालूम करते रहे कि “परमेश्वर की भली, उसे भानेवाली और उसकी परिपूर्ण इच्छा क्या है।” (रोमि. 12:2) नियमित तौर पर अध्ययन करने से हम बाइबल की शिक्षाओं को अच्छी तरह परख सकते हैं और इससे हमारा यकीन बढ़ेगा कि ये शिक्षाएँ वाकई सही और सच्ची हैं। हमें इस बात का भी यकीन होगा कि यहोवा के स्तर हमेशा सही होते हैं। इस तरह हम उस पेड़ के जैसे होंगे जो गहराई तक जड़ पकड़ लेता है यानी हम “विश्वास में मज़बूती” पाएँगे।—कुलुस्सियों 2:6, 7 पढ़िए।
18. शैतान की दुनिया के ज़हरीले असर से बचने के लिए हमें क्या करना होगा?
18 हममें से हरेक को खुद अपना विश्वास मज़बूत करना होगा, कोई और हमारे लिए यह काम नहीं कर सकता। इस वजह से अपनी सोच और नज़रिए को नया बनाते जाइए। लगातार प्रार्थना कीजिए और यहोवा से उसकी पवित्र शक्ति माँगते रहिए। गहराई से मनन कीजिए और समय-समय पर अपनी सोच और अपने इरादों की जाँच कीजिए। अच्छे किस्म के दोस्त चुनिए और उन लोगों की संगति कीजिए जो नयी सोच पैदा करने में आपकी मदद करते हैं। इस तरह आप शैतान की दुनिया के ज़हरीले असर से बच पाएँगे। आप “ऐसी दलीलों को और हर ऐसी ऊँची बात को” उलट पाएँगे, “जो परमेश्वर के ज्ञान के खिलाफ खड़ी की जाती है।”—2 कुरिं. 10:5.
गीत 50 समर्पण की मेरी प्रार्थना
a अकसर देखा गया है कि हम जिस संस्कृति और माहौल में पले-बढ़े होते हैं और हमने जो शिक्षा ली है, उनका हमारी सोच और नज़रिए पर या तो अच्छा असर होता है या बुरा। शायद हमें एहसास हो कि कोई गलत रवैया हमारे अंदर गहराई तक समा गया है और उसे निकालना बहुत मुश्किल है। इस लेख में हम सीखेंगे कि हम उसे अपने अंदर से कैसे निकाल सकते हैं।