पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करना
“शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है।”—रोमियों ८: ६.
१. मनुष्यों की सृष्टि किस उद्देश्य से की गयी थी?
“परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार [प्रतिरूप में, NW] उत्पन्न किया, अपने ही स्वरूप के अनुसार [प्रतिरूप में, NW] परमेश्वर ने उसको उत्पन्न किया, नर और नारी करके उस ने मनुष्यों की सृष्टि की।” (उत्पत्ति १:२७) एक प्रतिरूप किसी वस्तु या आदिप्ररूप का प्रतिबिंब होता है। अतः, मनुष्यों की सृष्टि परमेश्वर की महिमा का एक प्रतिबिंब होने के लिए की गयी थी। अपने सभी उद्यमों में ईश्वरीय गुण—जैसे कि प्रेम, भलाई, न्याय, और आध्यात्मिकता—प्रकट करने के द्वारा वे सृष्टिकर्ता को स्तुति और सम्मान देते, साथ ही अपने लिए ख़ुशी और संतुष्टि लाते हैं।—१ कुरिन्थियों ११:७; १ पतरस २:१२.
२. पहला मानव जोड़ा निशाने से कैसे चूक गया?
२ परिपूर्णता में सृष्ट, पहला मानव जोड़ा इस भूमिका के लिए सुसज्जित था। तेज़ चमक देने के लिए परिष्कृत आइने के समान, वे तेज और निष्ठा के साथ परमेश्वर की महिमा को प्रतिबिंबित करने के योग्य थे। लेकिन, उन्होंने उस तेज़ चमक को बदरंग होने दिया जब उन्होंने जानबूझकर अपने सृष्टिकर्ता और परमेश्वर की अवज्ञा करने का चुनाव किया। (उत्पत्ति ३:६) उसके बाद, वे परमेश्वर की महिमा को पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित नहीं कर सके। वे परमेश्वर की महिमा से रहित हो गए और परमेश्वर के प्रतिरूप में सृष्ट होने के उद्देश्य से चूक गए। दूसरे शब्दों में, उन्होंने पाप किया।a
३. पाप का वास्तविक प्रकार क्या है?
३ यह हमें पाप के वास्तविक प्रकार को समझने में मदद करता है, जो मनुष्य द्वारा परमेश्वर की समानता और महिमा के प्रतिबिंबन को बिगाड़ता है। पाप मनुष्य को अपवित्र करता है, अर्थात् आध्यात्मिक और नैतिक अर्थ में अशुद्ध और बदरंग करता है। सारी मानवजाति आदम और हव्वा के वंशज होने के कारण उस बदरंग और अशुद्ध स्थिति में जन्मी है, और परमेश्वर की सन्तानों के रूप में उसकी अपेक्षा पर पूरी नहीं बैठती। और नतीजा? बाइबल समझाती है: “जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया।”—रोमियों ५:१२; साथ ही यशायाह ६४:६ से तुलना कीजिए.
पतित शरीर पर पाप की पकड़
४-६. (क) आज अधिकांश लोग पाप को किस दृष्टि से देखते हैं? (ख) पाप के बारे में आधुनिक दृष्टिकोणों का क्या नतीजा है?
४ आज अधिकांश लोग अपने आप को अशुद्ध, बदरंग, या पापी नहीं समझते। वास्तव में, पाप शब्द अधिकांश लोगों की शब्दावली से लगभग ग़ायब ही हो गया है। वे शायद भूल, असावधानी, और ग़लत अनुमान लगाने के बारे में बात करें। लेकिन पाप के बारे में? शायद ही कभी! जो अभी-भी परमेश्वर पर विश्वास करने का दावा करते हैं उनके लिए भी “उसकी शिक्षाएँ नीतिवादात्मक नियमावली होने के बजाय नैतिक विचारों का एक समूह है, वे इन्हें १० आज्ञाओं के बजाय ‘१० सुझाव’ समझते हैं,” सामाजिकी का एक प्रोफेसर, ऐलन वोल्फ़ कहता है।
५ इस तरह के सोचने के ढंग का नतीजा क्या है? पाप की वास्तविकता का इनकार करना, या कम से कम उसकी उपेक्षा करना। इसने एक ऐसी पीढ़ी उत्पन्न की है जिनकी सही और ग़लत के बारे में बहुत ही विकृत समझ है। वे आचरण के स्वयं अपने स्तर निर्धारित करने के लिए अपने आप को स्वतंत्र समझते हैं, और समझते हैं कि वे जो भी करने का चुनाव करते हैं उसके लिए वे किसी को ज़िम्मेदार नहीं हैं। ऐसे लोगों के लिए, दोषी न महसूस करना एकमात्र मापदण्ड है यह जाँचने के लिए कि एक कार्य उचित है या नहीं।—नीतिवचन ३०:१२, १३; साथ ही व्यवस्थाविवरण ३२:५, २० से तुलना कीजिए.
६ उदाहरण के लिए, एक टेलीविज़न भेंटवार्ता में युवा लोगों को आमंत्रित किया गया कि तथाकथित सात महापापों के बारे में अपने विचार व्यक्त करें।b “घमंड पाप नहीं है,” एक भाग लेनेवाले ने कहा। “आपको अपने बारे में अच्छा महसूस करना चाहिए।” आलस्य के सम्बन्ध में एक और ने कहा: “कभी-कभी आलसी होना अच्छा है। . . . कभी-कभी आराम करना और अपने आपको व्यक्तिगत समय देना अच्छा है।” यहाँ तक कि भेंटकर्ता ने भी यह सारिक टिप्पणी की: ‘सात महापाप कुकर्म नहीं हैं, बल्कि सामान्य मानव आवेग हैं जो कष्टकर और अति आनन्ददायक हो सकते हैं।’ जी हाँ, पाप की धारणा के साथ-साथ दोष की भावना भी ग़ायब हो गयी है, क्योंकि आख़िरकार, दोष अच्छा महसूस करने के बिल्कुल विपरीत है।—इफिसियों ४:१७ -१९.
७. बाइबल के अनुसार, मनुष्य पाप द्वारा कैसे प्रभावित होते हैं?
७ इस सब की स्पष्ट विषमता में, बाइबल साफ़-साफ़ कहती है: “सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।” (रोमियों ३:२३) प्रेरित पौलुस ने भी स्वीकार किया: “मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु बास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता, वही किया करता हूं।” (रोमियों ७:१८, १९) यहाँ पौलुस आत्मदया में आसक्त नहीं हो रहा था। उसके बजाय, क्योंकि उसे पूरी तरह एहसास था कि मानवजाति परमेश्वर की महिमा से कितनी रहित हो गयी है, उसने पतित शरीर पर पाप की पकड़ को और अधिक दुःखद रूप से महसूस किया। “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं!” उसने कहा, “मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?”—रोमियों ७:२४.
८. हमें अपने आप से कौन से प्रश्न पूछने चाहिए? क्यों?
८ इस विषय में आपका क्या दृष्टिकोण है? आप शायद स्वीकार करें कि आदम के एक वंशज के रूप में, आप भी अन्य सभी के समान अपरिपूर्ण हैं। लेकिन वह ज्ञान आपके सोच-विचार और आपकी जीवन-शैली को कैसे प्रभावित करता है? क्या आप उसे जीवन की एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार करते हैं और मात्र अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार चलते रहते हैं? या क्या आप अपने सभी कार्यों में परमेश्वर की महिमा को यथासंभव तेज़ी से प्रतिबिंबित करने के लिए संघर्ष करते हुए, पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करने के लिए निरंतर प्रयास करते हैं? यह ध्यान में रखते हुए कि पौलुस ने क्या कहा, यह हम में से हरेक के लिए गंभीर चिन्ता की बात होनी चाहिए: “शारीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगाते हैं। शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है।”—रोमियों ८:५, ६.
शरीर पर मन लगाना
९. ऐसा क्यों है कि “शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है”?
९ पौलुस का क्या अर्थ था जब उसने कहा कि “शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है”? बाइबल में “शरीर” शब्द का प्रयोग अकसर मनुष्य को उसकी अपरिपूर्ण स्थिति में सूचित करने के लिए किया जाता है, जो विद्रोही आदम के एक वंशज के रूप में ‘पाप के साथ गर्भ में पड़ा।’ (भजन ५१:५; अय्यूब १४:४) अतः, पौलुस मसीहियों को समझा रहा था कि अपने मन पापमय प्रवृत्तियों, आवेगों, और अपरिपूर्ण, पतित शरीर की अभिलाषाओं पर न लगाएँ। और क्यों नहीं? दूसरी जगह पौलुस ने हमें बताया कि शरीर के काम क्या हैं और उसके बाद यह चेतावनी दी: “ऐसे ऐसे काम करनेवाले परमेश्वर के राज्य के वारिस न होंगे।”—गलतियों ५:१९-२१.
१०. ‘मन लगाने’ का क्या अर्थ है?
१० लेकिन क्या किसी चीज़ पर मन लगाने और उसका अभ्यास करने में एक बड़ा फ़र्क नहीं है? यह सच है कि किसी चीज़ के बारे में सोचना हमेशा उस काम को करने की ओर नहीं ले जाता। लेकिन, मन लगाना मात्र एक क्षणिक विचार आने से अधिक है। पौलुस द्वारा प्रयुक्त शब्द यूनानी में फ्रोनीमा है, और यह “सोचने के तरीक़े, मनोवृत्ति, . . . लक्ष्य, आकांक्षा, प्रयास” को चित्रित करता है। इसलिए, ‘शरीर पर मन लगाने’ का अर्थ है पतित शरीर की अभिलाषाओं द्वारा नियंत्रित, वशीकृत, अभिभूत, और प्रेरित होना।—१ यूहन्ना २:१६.
११. किस प्रकार कैन शरीर पर मन लगा रहा था, और परिणाम क्या था?
११ कैन ने जो मार्ग अपनाया उसके द्वारा यह मुद्दा भली-भांति चित्रित होता है। जब कैन के हृदय में ईर्ष्या और क्रोध भड़का, तो यहोवा परमेश्वर ने उसे चेतावनी दी: “तू क्यों क्रोधित हुआ? और तेरे मुंह पर उदासी क्यों छा गई है? यदि तू भला करे, तो क्या तेरी भेंट ग्रहण न की जाएगी? और यदि तू भला न करे, तो पाप द्वार पर छिपा रहता है, और उसकी लालसा तेरी ओर होगी, और तू उस पर प्रभुता करेगा।” (उत्पत्ति ४:६, ७) कैन के सामने एक चुनाव था। क्या वह ‘भला करता,’ अर्थात् अपना मन, लक्ष्य, और आकांक्षा किसी अच्छी चीज़ पर लगाता? या वह शरीर पर मन लगाना जारी रखता और अपने मन को अपने हृदय में छिपी बुरी प्रवृत्तियों पर केंद्रित करता? जैसा यहोवा ने समझाया, पाप “द्वार पर छिपा” था, प्रतीक्षा कर रहा था कि यदि कैन अनुमति दे तो झपटकर उसको खा जाए। अपनी शारीरिक अभिलाषा का विरोध करने और ‘उस पर प्रभुता करने’ के बजाय, कैन ने स्वयं को उस अभिलाषा के द्वारा एक विनाशक अन्त तक अभिभूत होने दिया।
१२. “कैन की सी चाल” नहीं चलने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
१२ आज हमारे बारे में क्या? निश्चय ही हम “कैन की सी चाल” नहीं चलना चाहेंगे, जैसा यहूदा ने प्रथम-शताब्दी मसीहियों में से कुछेक के बारे में दुःखित होकर कहा। (यहूदा ११) हमें कभी यह सोचना और औचित्य स्थापित नहीं करना चाहिए कि थोड़ा-सा अपनी अभिलाषाओं को तृप्त करना या यहाँ-वहाँ नियमों को थोड़ा-सा भंग करना अहानिकर है। इसके विपरीत, हमें ऐसे किसी अधर्मी और भ्रष्ट करनेवाले प्रभाव को पहचानने के लिए सतर्क रहना चाहिए जो शायद हमारे हृदय और मन में आ गया हो और इससे पहले कि वह जड़ पकड़ ले उसे जल्द ही निकाल देना चाहिए। पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करना अन्दर से शुरू होता है।—मरकुस ७:२१.
१३. किस प्रकार एक व्यक्ति “अपनी ही अभिलाषा से खिंच” सकता है?
१३ उदाहरण के लिए, शायद आपको एक बहुत ख़राब या घिनौने दृश्य या एक ख़ासकर अश्लील या कामोद्दीपक प्रतिमा की एक झलक दिख जाए। यह एक पुस्तक या पत्रिका में कोई तस्वीर, एक फ़िल्म या टेलीविज़न के परदे पर कोई दृश्य, विज्ञापन-तख़्ते पर एक विज्ञापन, या एक असल स्थिति में भी हो सकता है। ज़रूरी नहीं कि वह स्वयं में भयप्रद हो, क्योंकि यह हो सकता है—और होता है। लेकिन, यह प्रतिमा या दृश्य, जबकि कुछ सेकेंड तक ही रहा हो, मन में ठहर सकता है और समय-समय पर फिर से उभर सकता है। जब ऐसा होता है तब आप क्या करते हैं? क्या आप तुरंत उस विचार का विरोध करने के लिए कार्य करते हैं और उसे अपने मन से निकाल देते हैं? या क्या आप उसे अपने मन में ही रहने देते हैं, शायद हर बार जब वह विचार आता है तो उस अनुभव को फिर से सजीव रूप से देखते हैं? इस दूसरे विकल्प को अपनाने का अर्थ है याकूब द्वारा वर्णित घटनाओं की कड़ी को शुरू करने का जोख़िम लेना: “प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर, और फंसकर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनता है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।” इसी कारण पौलुस ने कहा: “शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है।”—याकूब १:१४, १५; रोमियों ८:६.
१४. हर दिन हमें किन चीज़ों का सामना करना पड़ता है, और हमें किस प्रकार प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए?
१४ एक ऐसे संसार में जीना जिसमें कि हम जीते हैं जहाँ लैंगिक अनैतिकता, हिंसा, और भौतिकवाद का गुणगान होता है—इन्हें पुस्तकों, पत्रिकाओं, फ़िल्मों, टेलीविज़न कार्यक्रमों, और लोकप्रिय संगीत में खुलेआम और बहुतायत में प्रस्तुत किया जाता है—हम पर अक्षरक्षः हर दिन ग़लत विचारों और मतों की बमवर्षा होती है। आपकी प्रतिक्रिया क्या है? क्या इस सब से आपको मज़ा आता है और आपका मनोरंजन होता है? या क्या आप धर्मी लूत की तरह महसूस करते हैं, “जो अधर्मियों के अशुद्ध चाल-चलन से बहुत दुखी था . . . और उनके अधर्म के कामों [के कारण] . . . हर दिन अपने सच्चे मन को पीड़ित करता था”? (२ पतरस २:७, ८) पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करने में सफल होने के लिए हमें भजनहार की तरह करने के लिए दृढ़-निश्चय करने की ज़रूरत है: “मैं किसी ओछे काम पर चित्त न लगाऊंगा। मैं कुमार्ग पर चलनेवालों के काम से घिन रखता हूं; ऐसे काम में मैं न लगूंगा।”—भजन १०१:३.
आत्मा पर मन लगाना
१५. हम पर पाप की पकड़ का विरोध करने के लिए हमारे पास क्या मदद है?
१५ पौलुस ने बताया कि एक चीज़ पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करने के लिए हमारी मदद कर सकती है: “आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है।” (रोमियों ८:६) अतः, शरीर द्वारा अभिभूत होने के बजाय हमें अपने मन को आत्मा के प्रभाव में लाना चाहिए और आत्मा की बातों पर फलना-फूलना चाहिए। वे क्या हैं? फिलिप्पियों ४:८ में पौलुस उनकी सूची देता है: “निदान, हे भाइयो, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरनीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सद्गुण और प्रशंसा की बातें हैं उन्हीं पर ध्यान लगाया करो।” आइए पास से देखें और एक बेहतर समझ पाएँ कि हमें किन बातों पर ध्यान लगाना चाहिए।
१६. पौलुस ने हमें किन गुणों पर ‘ध्यान लगाने’ के लिए प्रोत्साहन दिया, और हर गुण में क्या सम्मिलित है?
१६ सबसे पहले, पौलुस ने आठ नैतिक गुणों की सूची दी। निश्चित ही, हमें यह एहसास है कि मसीहियों पर प्रतिबंध नहीं है कि हमेशा सिर्फ़ शास्त्रीय या सैद्धान्तिक विषयों के बारे में ही सोचें। हम अपने मन काफ़ी तरह-तरह के विषयों या प्रसंगों पर लगा सकते हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे पौलुस द्वारा बताए गए नैतिक गुणों के स्तर पर ठीक बैठने चाहिए। पौलुस द्वारा उल्लिखित ‘बातों’ का हर वर्ग हमारे ध्यान के योग्य है। आइए एक-एक करके उन पर विचार करें।
▫ “सत्य” में सिर्फ़ सच्चा या झूठा होने से ज़्यादा सम्मिलित है। इसका अर्थ है सत्यवादी, खरा, और विश्वासयोग्य होना, ऐसी चीज़ जो असली है, न कि सिर्फ़ असली होने का दिखावा है।—१ तीमुथियुस ६:२०.
▫ “आदरनीय” ऐसी बातों को सूचित करता है जो गौरवपूर्ण और सम्मान्य हैं। यह श्रद्धा की भावना उत्पन्न करता है, ऐसी चीज़ जो ऊँची, उत्तम, और प्रतिष्ठापूर्ण है न कि अशिष्ट और घटिया।
▫ “उचित” का अर्थ है जो परमेश्वर के, न कि मनुष्य के स्तर पर पूरा बैठता है। सांसारिक लोग अपना मन अनुचित योजनाओं में व्यस्त रखते हैं, लेकिन हमें उन बातों पर सोचना और उन बातों में आनन्द लेना है जो परमेश्वर की दृष्टि में उचित हैं।—भजन २६:४; आमोस ८:४-६ से तुलना कीजिए।
▫ “पवित्र” का अर्थ है न सिर्फ़ (लैंगिक या अन्य किसी) आचरण में बल्कि विचार और अभिप्राय में भी शुद्ध और पावन। “जो ज्ञान ऊपर से आता है वह पहिले तो पवित्र होता है,” याकूब कहता है। यीशु जो “पवित्र” है, ध्यान लगाने के लिए हमारे लिए परिपूर्ण उदाहरण है।—याकूब ३:१७; १ यूहन्ना ३:३.
▫ “सुहावनी” बात वह है जो दूसरों में प्रेम उत्तेजित और उत्प्रेरित करती है। अपना मन ऐसी बातों पर लगाने के बजाय जो घृणा, कटुता, और कलह उत्पन्न करती हैं, हमें “प्रेम, और भले कामों में उस्काने के लिये एक दूसरे की चिन्ता” करनी है।—इब्रानियों १०:२४.
▫ “मनभावनी” का अर्थ है न सिर्फ़ “सम्मानित” या “नेकनाम” होना बल्कि एक सक्रिय अर्थ में, प्रोत्साहक और सराहनीय भी होना। हम अपना मन नीच और अपमानजनक बातों पर लगाने के बजाय हितकर और प्रोत्साहक बातों पर लगाते हैं।—इफिसियों ४:२९.
▫ “सद्गुण” का अर्थ मूलतः “भलाई” या “नैतिक श्रेष्ठता” है, लेकिन इसका अर्थ किसी भी क़िस्म की श्रेष्ठता हो सकता है। अतः, हम परमेश्वर के स्तर के सामंजस्य में दूसरों के उपयोगी गुणों, अच्छाइयों, और उपलब्धियों का मूल्यांकन कर सकते हैं।
▫ “प्रशंसा की बातें” सचमुच प्रशंसनीय हैं यदि प्रशंसा परमेश्वर की ओर से या उसके द्वारा स्वीकृत अधिकार की ओर से आती है।—१ कुरिन्थियों ४:५; १ पतरस २:१४.
जीवन और शान्ति की प्रतिज्ञा
१७. ‘आत्मा पर मन लगाने’ से कौन सी आशिषें परिणित होती हैं?
१७ जब हम पौलुस की सलाह पर चलते हैं और ‘उन्हीं [बातों] पर ध्यान लगाते’ हैं, तो हम ‘आत्मा पर मन लगाने’ में सफल होंगे। परिणाम सिर्फ़ जीवन की आशिष ही नहीं, अर्थात् प्रतिज्ञात नए संसार में अनन्त जीवन, बल्कि शान्ति भी है। (रोमियों ८:६) क्यों? क्योंकि हमारा मन शारीरिक बातों के बुरे प्रभाव से सुरक्षित है, और हम पौलुस द्वारा वर्णित शरीर और आत्मा के बीच पीड़ादायक संघर्ष द्वारा अब उतने ज़्यादा प्रभावित नहीं हैं। शरीर के प्रभाव का विरोध करने के द्वारा हम परमेश्वर के साथ शान्ति भी प्राप्त करते हैं “क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है।”—रोमियों ७:२१-२४; ८:७.
१८. शैतान कौन सी लड़ाई लड़ रहा है, और हम किस प्रकार विजयी हो सकते हैं?
१८ शैतान और उसके अभिकर्ता हर कोशिश कर रहे हैं कि परमेश्वर की महिमा के हमारे प्रतिबिंबन को बदरंग करें। वे हमारे मन पर शारीरिक अभिलाषाओं की बमवर्षा करने के द्वारा उस पर नियंत्रण पाने की कोशिश करते हैं, यह जानते हुए कि यह आख़िरकार परमेश्वर से बैर और मृत्यु की ओर ले जाएगा। लेकिन इस लड़ाई में हम विजयी हो सकते हैं। पौलुस की तरह, हम भी घोषित कर सकते हैं: “मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं” इसलिए कि उसने पतित शरीर पर पाप की पकड़ का विरोध करने के लिए हमें साधन प्रदान किया है।—रोमियों ७:२५.
[फुटनोट]
a बाइबल सामान्यतः इब्रानी क्रिया काटा और यूनानी क्रिया हामारटानो का प्रयोग “पाप” को सूचित करने के लिए करती है। इन दोनों शब्दों का अर्थ है “चूकना,” और यह एक उद्देश्य, निशाने, या लक्ष्य को चूकने या उस तक न पहुँचने के अर्थ में है।
b परंपरागत रूप से, घमंड, लालचीपन, कामुकता, ईर्ष्या, पेटूपन, क्रोध, और आलस्य सात महापाप हैं।
क्या आप समझा सकते हैं?
▫ पाप क्या है, और यह कैसे पतित शरीर पर पकड़ विकसित कर सकता है?
▫ कैसे हम ‘शरीर पर मन लगाने’ का विरोध कर सकते हैं?
▫ कैसे हम ‘आत्मा पर मन लगाने’ को बढ़ावा दे सकते हैं?
▫ किस प्रकार “आत्मा पर मन लगाना” जीवन और शान्ति लाता है?
[पेज 22 पर तसवीरें]
स्वयं अपने विनाश के लिए कैन ने अपनी शारीरिक प्रवृत्तियों द्वारा अपने आप को अभिभूत होने दिया
[पेज 23 पर तसवीरें]
आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है