यहोवा ‘संकट के समय में हमारा दृढ़ गढ़ है’
“धर्मियों की मुक्ति यहोवा की ओर से होती है; संकट के समय वह उनका दृढ़ गढ़ है।”—भजन 37:39.
1, 2. (क) यीशु ने अपने चेलों की खातिर क्या प्रार्थना की? (ख) अपने लोगों के लिए परमेश्वर की क्या मरज़ी है?
यहोवा सर्वशक्तिमान है। उसमें इतनी शक्ति है कि वह अपने वफादार उपासकों को जैसे चाहे बचा सकता है। यहाँ तक कि वह अपने लोगों को दुनिया से अलग करके किसी महफूज़ और शांत जगह में रख सकता है। फिर भी, अपने चेलों के लिए यीशु ने अपने स्वर्गीय पिता से बिनती की: “मैं यह बिनती नहीं करता, कि तू उन्हें जगत से उठा ले, परन्तु यह कि तू उन्हें उस दुष्ट से बचाए रख।”—यूहन्ना 17:15.
2 यहोवा ने हमें ‘जगत से उठा लेने’ का फैसला नहीं किया है। इसके बजाय, उसकी मरज़ी है कि हम इस संसार में आम लोगों के बीच रहकर उन्हें परमेश्वर का संदेश दें, जिससे उन्हें उम्मीद और दिलासा मिले। (रोमियों 10:13-15) मगर जैसे यीशु की प्रार्थना से पता लगता है, इस संसार में जीते वक्त हमारा सामना “उस दुष्ट” से होता है। आज्ञा न माननेवाले इंसान और दुष्ट आत्मिक सेनाओं की वजह से दुनिया पर बहुत दुःख-दर्द आए हैं और मसीही भी इन तकलीफों से बच नहीं सकते।—1 पतरस 5:9.
3. यहोवा के वफादार सेवकों को भी किस सच्चाई का सामना करना पड़ता है, मगर हमें परमेश्वर के वचन से क्या तसल्ली मिलती है?
3 ऐसी परीक्षाओं का सामना करते वक्त, मायूसी के दौर से गुज़रना लाज़िमी है। (नीतिवचन 24:10) बाइबल में उन वफादार जनों के ढेरों किस्से दर्ज़ हैं, जिन पर संकट आया था। भजनहार कहता है: “धर्मी पर बहुत सी विपत्तियां पड़ती तो हैं, परन्तु यहोवा उसको उन सब से मुक्त करता है।” (भजन 34:19) जी हाँ, “धर्मी” के साथ भी बुरा होता है। भजनहार दाऊद की तरह, कभी-कभी हम भी शायद ‘सुन्न पड़ जाएँ और कुचल दिए जाएँ।’ (भजन 38:8, नयी हिन्दी बाइबिल) फिर भी, यह जानकर तसल्ली मिलती है कि “यहोवा टूटे मनवालों के समीप रहता है, और पिसे हुओं का उद्धार करता है।”—भजन 34:18; 94:19.
4, 5. (क) नीतिवचन 18:10 के मुताबिक, हमें परमेश्वर से हिफाज़त पाने के लिए क्या करना चाहिए? (ख) परमेश्वर की मदद पाने के लिए हमें कौन-से कुछ खास कदम उठाने चाहिए?
4 जैसे यीशु ने प्रार्थना की थी, यहोवा सचमुच हम पर नज़र रखे हुए है। वह “संकट के समय” हमारा “दृढ़ गढ़ है।” (भजन 37:39) नीतिवचन की किताब ऐसे ही शब्दों का इस्तेमाल करके कहती है: “यहोवा का नाम एक दृढ़ गढ़ है। धर्मी जन उसमें भागकर सुरक्षित रहता है।” (नीतिवचन 18:10, NHT) यह आयत यहोवा के सिरजे हुए प्राणियों के लिए उसकी कोमल परवाह के बारे में एक बुनियादी सच ज़ाहिर करती है। परमेश्वर खासकर धर्मियों की हिफाज़त करता है, जो उसकी खोज में लगे रहते हैं मानो हम पनाह पाने के लिए किसी मज़बूत गढ़ की तरफ भाग रहे हों।
5 जब हम दर्दनाक समस्याओं से गुज़रते हैं, तब हम सुरक्षा के लिए भागकर यहोवा के पास कैसे जा सकते हैं? यहोवा से मदद पाने के लिए हम तीन ज़रूरी कदम उठा सकते हैं। आइए इन पर चर्चा करें। पहला, हमें प्रार्थना में अपने स्वर्गीय पिता के पास जाना चाहिए। दूसरा, हमें उसकी पवित्र आत्मा के मुताबिक काम करना चाहिए। और तीसरा, हमें मसीही भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए जो हमारे दुःख को कुछ हद तक कम कर सकते हैं और इस तरह हमें यहोवा के इंतज़ाम के अधीन होना चाहिए।
प्रार्थना की ताकत
6. सच्चे मसीही प्रार्थना को किस नज़र से देखते हैं?
6 कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि हताशा और तनाव दूर करने के लिए प्रार्थना करें। हो सकता है कि कुछ वक्त के लिए खामोश रहकर प्रार्थना और मनन करने से तनाव कुछ कम हो, मगर कुछ कुदरती आवाज़ों से यहाँ तक कि पीठ पर मालिश कराने से भी तनाव कम किया जा सकता है। सच्चे मसीही, प्रार्थना को तनाव कम करने का महज़ एक इलाज नहीं मानते जिससे उनका मन हलका हो जाता है। हमारे लिए प्रार्थना, श्रद्धा की भावना के साथ परमेश्वर से बात करना है। प्रार्थना करते वक्त हम परमेश्वर के लिए भक्ति और उस पर अपना भरोसा ज़ाहिर करते हैं। जी हाँ, प्रार्थना हमारी उपासना का एक हिस्सा है।
7. विश्वास के साथ प्रार्थना करने का क्या मतलब है, और ऐसी प्रार्थनाएँ हमें संकट का सामना करने में कैसे मदद देती हैं?
7 प्रार्थना करते वक्त, हमारे अंदर यहोवा पर विश्वास या भरोसे की भावना होनी चाहिए। प्रेरित यूहन्ना ने लिखा: “हमारा परमेश्वर में यह विश्वास है कि यदि हम उसकी इच्छा के अनुसार उससे विनती करें तो वह हमारी सुनता है।” (1 यूहन्ना 5:14, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) सच तो यह है कि इस विश्व की सबसे महान हस्ती, एकमात्र सच्चा परमेश्वर यहोवा, अपने उपासकों के दिल से निकली प्रार्थनाओं पर खास ध्यान देता है। यह जानने से ही हमें कितना दिलासा मिलता है कि जब हम अपनी चिंताओं और समस्याओं के बारे में अपने प्यारे परमेश्वर को बताते हैं, तो वह हमारी सुनता है।—फिलिप्पियों 4:6.
8. यहोवा से प्रार्थना करते वक्त, वफादार मसीहियों को क्यों कभी झिझक या विश्वास की कमी महसूस नहीं करनी चाहिए?
8 प्रार्थना में यहोवा के पास आते वक्त, वफादार मसीहियों को कभी झिझक या विश्वास की कमी महसूस नहीं करनी चाहिए, ना ही खुद को प्रार्थना करने के नाकाबिल महसूस करना चाहिए। यह सच है कि जब हम अपने आप से निराश हो जाते हैं या मुश्किलों के बोझ से दब जाते हैं, तब हमें यहोवा से प्रार्थना करने का शायद मन न करे। ऐसे मौकों पर हमें याद रखना चाहिए कि यहोवा “अपने दीन लोगों पर दया” करता है और ‘दुखियों को शान्ति देता’ है। (यशायाह 49:13; 2 कुरिन्थियों 7:6, NHT) हमें खासकर परेशानी और संकट के वक्त, पूरे विश्वास के साथ अपने स्वर्गीय पिता के पास जाना चाहिए जो हमारा मज़बूत गढ़ है।
9. प्रार्थना में परमेश्वर के पास आने में विश्वास की क्या अहमियत है?
9 प्रार्थना के खास सम्मान से पूरा फायदा पाने के लिए, हममें सच्चा विश्वास होना ज़रूरी है। बाइबल कहती है कि “परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों 11:6) विश्वास करने का मतलब सिर्फ यह मानना नहीं कि परमेश्वर अस्तित्त्व में है, यानी “वह है।” सच्चा विश्वास रखनेवाले को यह पक्का यकीन होता है कि जो लोग सारी ज़िंदगी परमेश्वर की आज्ञाओं को मानते हुए जीते हैं, उन्हें वह प्रतिफल या इनाम देने के काबिल है और देना चाहता भी है। “प्रभु [यहोवा] की आंखें धर्मियों पर लगी रहती हैं, और उसके कान उन की बिनती की ओर लगे रहते हैं।” (1 पतरस 3:12) जब हम हर घड़ी खुद को यह याद दिलाते हैं कि यहोवा हमसे प्यार करता है और हमारी परवाह करता है, तो हमारी प्रार्थनाएँ हमारे लिए और भी खास मायने रखती हैं।
10. यहोवा से आध्यात्मिक सहारा पाने के लिए हमारी प्रार्थनाओं को कैसा होना चाहिए?
10 पूरे दिल से की गयी प्रार्थनाओं को यहोवा सुनता है। भजनहार ने लिखा: “मैं ने सारे मन से प्रार्थना की है, हे यहोवा मेरी सुन लेना!” (भजन 119:145) ज़्यादातर धर्मों में रीति-रस्मों के मुताबिक प्रार्थनाएँ की जाती हैं, मगर हमारी प्रार्थनाएँ किसी तरह का जाप या बेमन से की गयी प्रार्थनाएँ नहीं होतीं। जब हम “सारे मन” से यहोवा से प्रार्थना करते हैं, तो हमारे शब्दों का गहरा अर्थ होता है और इनका उद्देश्य होता है। सच्चे दिल से की गयी ऐसी प्रार्थना के बाद, हम वह राहत महसूस करते हैं जो ‘यहोवा पर अपना बोझ डालने’ से मिलती है। और जैसे बाइबल वादा करती है, ‘वह हमें सम्भालेगा।’—भजन 55:22; 1 पतरस 5:6, 7.
परमेश्वर की आत्मा हमारी मदद करती है
11. जब हम यहोवा से मदद ‘माँगते रहते’ हैं, तो वह किस एक तरीके से हमारी प्रार्थनाओं का जवाब देता है?
11 यहोवा न सिर्फ प्रार्थना का सुननेवाला है, बल्कि जवाब देनेवाला भी है। (भजन 65:2) दाऊद ने लिखा: “संकट के दिन मैं तुझ को पुकारूंगा, क्योंकि तू मेरी सुन लेगा।” (भजन 86:7) यीशु ने भी अपने चेलों को बढ़ावा दिया कि यहोवा से मदद ‘माँगते रहें,’ क्योंकि “स्वर्गीय पिता अपने मांगनेवालों को पवित्र आत्मा” ज़रूर देगा। (मत्ती 7:7, ईज़ी-टू-रीड वर्शन; लूका 11:9-13) जी हाँ, परमेश्वर की सक्रिय शक्ति उसके लोगों के लिए एक मददगार या शांति देनेवाले का काम करती है।—यूहन्ना 14:16.
12. जब समस्याएँ हम पर हावी होती नज़र आती हैं, तब परमेश्वर की आत्मा हमारी मदद कैसे कर सकती है?
12 जब हम परीक्षाओं का सामना करते हैं, तब भी परमेश्वर की आत्मा हमें “असीम सामर्थ” से भर सकती है। (2 कुरिन्थियों 4:7) प्रेरित पौलुस बहुत बार तनाव भरे हालात से गुज़रा, और उसने यकीन के साथ कहा: “जो मुझे सामर्थ देता है उस में मैं सब कुछ कर सकता हूं।” (फिलिप्पियों 4:13) उसी तरह, आज बहुत-से मसीहियों की मिन्नतों के जवाब में, उन्हें नयी आध्यात्मिक शक्ति मिली और उनके हौसले बुलंद हुए। अकसर, परमेश्वर की आत्मा से मदद पाने के बाद, दुःख देनेवाली समस्याएँ हमें इतनी मुश्किल नहीं लगतीं। परमेश्वर से मिलनेवाली इस शक्ति की वजह से, हम इस प्रेरित की तरह कह सकते हैं: “हम चारों ओर से क्लेश तो भोगते हैं, पर संकट में नहीं पड़ते; निरुपाय तो हैं, पर निराश नहीं होते। सताए तो जाते हैं; पर त्यागे नहीं जाते; गिराए तो जाते हैं, पर नाश नहीं होते।”—2 कुरिन्थियों 4:8, 9.
13, 14. (क) अपने लिखित वचन के ज़रिए यहोवा कैसे हमारा मज़बूत गढ़ बना है? (ख) बाइबल के सिद्धांतों पर अमल करने से खुद आपको कैसे फायदा हुआ है?
13 पवित्र आत्मा ने हमारे लाभ के लिए, परमेश्वर का वचन लिखे जाने की प्रेरणा दी और इसे हमारे लिए सुरक्षित रखा। यहोवा संकट के समय में अपने वचन के ज़रिए कैसे हमारा मज़बूत गढ़ बना है? एक तरीका है, हमें खरी बुद्धि और सोचने-समझने की काबिलीयत देकर। (नीतिवचन 3:21-24) बाइबल हमारी दिमागी काबिलीयत को सही दिशा में बढ़ने की तालीम देती है और हमारी तर्क-शक्ति में सुधार करती है। (रोमियों 12:1) परमेश्वर के वचन को लगातार पढ़ने और अध्ययन करने, साथ ही उसका इस्तेमाल करने से हम अपनी ‘ज्ञानेन्द्रियों का अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो’ सकते हैं। (इब्रानियों 5:14) आपने शायद खुद अनुभव किया होगा कि मुश्किलों का सामना करने पर, बाइबल के सिद्धांतों से कैसे आपको सही फैसले करने में मदद मिली। बाइबल हमें चतुर बनाती है ताकि हम आसानी से बड़ी-से-बड़ी मुसीबत का व्यावहारिक हल ढूँढ़ पाएँ।—नीतिवचन 1:4.
14 परमेश्वर के वचन में हमें हिम्मत पाने का एक और तरीका मिलता है, वह है उद्धार की आशा। (रोमियों 15:4) बाइबल बताती है कि बुराई सदा तक कायम नहीं रहेगी। जो क्लेश हम सहते हैं, वह कुछ पल का है। (2 कुरिन्थियों 4:16-18) हमारे पास “अनन्त जीवन की आशा” है, “जिस की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने जो झूठ बोल नहीं सकता सनातन से की है।” (तीतुस 1:2) अगर हम इस आशा में आनंद करें और हमेशा उस उज्ज्वल भविष्य को याद रखें जिसका वादा यहोवा ने हमसे किया है, तो हम क्लेश सहते हुए भी धीरज धर सकेंगे।—रोमियों 12:12; 1 थिस्सलुनीकियों 1:3.
कलीसिया—परमेश्वर के प्यार का सबूत
15. मसीही एक-दूसरे के लिए आशीष कैसे बन सकते हैं?
15 यहोवा ने मुसीबतों के दौर में हमारी मदद करने के लिए एक और इंतज़ाम किया है और वह है, मसीही कलीसिया के भाई-बहनों की दोस्ती। बाइबल कहती है: “मित्र सब समयों में प्रेम रखता है, और विपत्ति के दिन भाई बन जाता है।” (नीतिवचन 17:17) परमेश्वर का वचन, कलीसिया में सभी की इज़्ज़त करने और एक-दूसरे से प्रेम करने का बढ़ावा देता है। (रोमियों 12:10) प्रेरित पौलुस ने लिखा: “कोई अपनी ही भलाई को न ढूंढ़े, बरन औरों की।” (1 कुरिन्थियों 10:24) ऐसा रवैया रखने से हम अपनी परेशानियों के बजाय दूसरों की ज़रूरतों पर ज़्यादा ध्यान दे पाएँगे। जब हम दूसरों को सहारा देते हैं, तो न सिर्फ उनकी मदद करते हैं, बल्कि हमें भी खुशी और संतोष मिलता है जिससे अपनी तकलीफों का बोझ उठाना हमारे लिए ज़्यादा आसान हो जाता है।—प्रेरितों 20:35.
16. हर मसीही कैसे हौसला बढ़ानेवाला हो सकता है?
16 आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ भाई-बहन दूसरों की हिम्मत बँधाने में एक अहम भूमिका अदा करते हैं। इसके लिए वे अपना वक्त देते हैं और मिलनसार होते हैं। (2 कुरिन्थियों 6:11-13) जब सभी वक्त निकालकर नौजवानों को शाबाशी देते हैं, नए भाई-बहनों का हौसला बढ़ाते हैं और हताश लोगों की हिम्मत बँधाते हैं, तो इससे कलीसिया को वाकई आशीष मिलती है। (रोमियों 15:7) भाईचारे के प्रेम की वजह से हम कभी एक-दूसरे को शक की निगाह से नहीं देखेंगे। हम जल्दबाज़ी में यह नहीं मान लेंगे कि अगर कोई मुसीबतों से घिरा हुआ है, तो इसका मतलब वह आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर है। पौलुस, मसीहियों से बिलकुल सही गुज़ारिश करता है कि वे ‘कम हिम्मतों को दिलासा दें।’ (1 थिस्सलुनीकियों 5:14, हिन्दुस्तानी बाइबिल) बाइबल बताती है कि वफादार मसीहियों पर भी मुसीबतें आती हैं।—प्रेरितों 14:15.
17. मसीही भाईचारे के बंधन को मज़बूत करने के हमारे पास कौन-से मौके हैं?
17 मसीही सभाओं में हमें एक-दूसरे को दिलासा देने और एक-दूसरे का हौसला बढ़ाने का एक बढ़िया मौका मिलता है। (इब्रानियों 10:24, 25) यह प्यार-भरी बातचीत और मिलना-जुलना सिर्फ कलीसिया की सभाओं में नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के लोग अच्छी संगति करने के दूसरे मौके भी ढूँढ़ते हैं। ऐसे में कोई मुसीबत आने पर हम फौरन एक-दूसरे की मदद करेंगे, क्योंकि दोस्ती का मज़बूत बंधन पहले ही जोड़ा जा चुका है। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “देह में फूट न पड़े, परन्तु अंग एक दूसरे की बराबर चिन्ता करें। . . . यदि एक अंग दुःख पाता है, तो सब अंग उसके साथ दुःख पाते हैं; और यदि एक अंग की बड़ाई होती है, तो उसके साथ सब अंग आनन्द मनाते हैं।”—1 कुरिन्थियों 12:25, 26.
18. बोझिल महसूस करते वक्त हमें कैसी भावना से दूर रहना चाहिए?
18 कभी-कभी, हम इतना बोझिल महसूस करते हैं कि मसीही भाई-बहनों के साथ संगति करने तक का मन नहीं करता। हमें ऐसी भावनाओं के साथ लड़ना चाहिए, ताकि मसीही भाई-बहन हमें जो दिलासा और मदद दे सकते हैं, उससे हम खुद को महरूम न रखें। बाइबल हमें चिताती है: “जो औरों से अलग हो जाता है, वह अपनी ही इच्छा पूरी करने के लिये ऐसा करता है, और सब प्रकार की खरी बुद्धि से बैर करता है।” (नीतिवचन 18:1) हमारे भाई-बहन इस बात का सबूत हैं कि परमेश्वर हमारी परवाह करता है। अगर हम इस प्यार-भरे इंतज़ाम की कदर करेंगे, तो मुसीबत के वक्त हमें राहत मिलेगी।
अच्छा नज़रिया बनाए रखिए
19, 20. बाइबल हमें निराश करनेवाले सोच-विचारों को ठुकराने में कैसे मदद देती है?
19 मायूसी की वजह से जब हमारे हौसले पस्त हो जाते हैं, तब ज़्यादातर निराश करनेवाले विचार हमारे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। जैसे, तकलीफों से गुज़रते वक्त कुछ लोग शायद अपनी आध्यात्मिकता पर शक करने लगें और यह मान बैठें कि उन पर मुसीबत इसलिए आ रही है क्योंकि परमेश्वर उनसे खुश नहीं है। लेकिन, याद रखिए यहोवा “बुरी बातों” से किसी की परीक्षा नहीं लेता। (याकूब 1:13) बाइबल कहती है: “[परमेश्वर] मनुष्यों को अपने मन से न तो दबाता है और न दु:ख देता है।” (विलापगीत 3:33) इसके बजाय, जब यहोवा अपने सेवकों को दुःख-दर्द सहते देखता है, तो वह खुद भी बहुत उदास होता है।—यशायाह 63:8, 9; जकर्याह 2:8.
20 यहोवा “दया का पिता, और सब प्रकार की शान्ति का परमेश्वर है।” (2 कुरिन्थियों 1:3) वह हमारी परवाह करता है, और सही वक्त आने पर वह हमें बढ़ाएगा। (1 पतरस 5:6, 7) जब हम हर घड़ी यह याद रखेंगे कि परमेश्वर हमें दिल से चाहता है, तो अच्छा नज़रिया बनाए रखने, यहाँ तक कि खुश रहने में हमें मदद मिलेगी। याकूब ने लिखा: “हे मेरे भाइयों, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इस को पूरे आनन्द की बात समझो।” (याकूब 1:2, 3) क्यों? वही जवाब देता है: “क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा, जिस की प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करनेवालों को दी है।”—याकूब 1:12.
21. चाहे हम पर कैसी भी मुसीबत आए, परमेश्वर अपने वफादार सेवकों को क्या गारंटी देता है?
21 यीशु ने हमें जैसे चिताया था, संसार में हमें ज़रूर क्लेश होगा। (यूहन्ना 16:33) मगर बाइबल वादा करती है कि कोई “क्लेश, या संकट, या उपद्रव, या अकाल, या नङ्गाई, या जोखिम,” हमें यहोवा के प्रेम से और उसके पुत्र के प्रेम से अलग नहीं कर सकता। (रोमियों 8:35, 39) यह जानकर कितनी तसल्ली मिलती है कि हम पर आनेवाली कोई भी मुसीबत सिर्फ कुछ पल के लिए है! जब तक, हम इंसान के दुःख-तकलीफों के खत्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं, हमारा प्यारा स्वर्गीय पिता यहोवा हम पर नज़र रखे हुए है। अगर हम हिफाज़त पाने के लिए भागकर उसके पास जाते हैं, तो वह “पिसे हुओं के लिये ऊंचा गढ़ ठहरेगा, वह संकट के समय के लिये भी ऊंचा गढ़ ठहरेगा।”—भजन 9:9.
हमने क्या सीखा?
• इस दुष्ट संसार में रहते वक्त मसीहियों को क्या उम्मीद करनी चाहिए?
• परीक्षाओं के वक्त सच्चे दिल से की गयी हमारी प्रार्थनाओं से हमें कैसे हिम्मत मिलेगी?
• परमेश्वर की आत्मा कैसे मदद करती है?
• हम एक-दूसरे की मदद करने के लिए क्या कर सकते हैं?
[पेज 18 पर तसवीर]
हमें यहोवा के पास ऐसे जाना चाहिए, मानो हम पनाह पाने के लिए किसी मज़बूत गढ़ की तरफ भाग रहे हों
[पेज 20 पर तसवीरें]
आध्यात्मिक रूप से प्रौढ़ जन हर मौके का फायदा उठाकर दूसरों को शाबाशी देते और उनका हौसला बढ़ाते हैं