“तुम सब भाई हो”
“तुम रब्बी न कहलाना; क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरु है: और तुम सब भाई हो।”—मत्ती 23:8.
1. हम किस सवाल पर चर्चा करेंगे?
“किसे ज़्यादा इज़्ज़त दी जानी चाहिए, एक मिशनरी को या बेथेल में रहनेवाले को?” यह सवाल एशिया की एक बहन ने ऑस्ट्रॆलिया से आयी एक मिशनरी को बड़े भोलेपन से पूछा। वह जानना चाहती थी कि दूसरे देश से आए मिशनरी ज़्यादा बड़े होते हैं या अपने ही देश के ब्राँच में काम करनेवाले बॆथॆलाइट। मिशनरी को यह सवाल सुनकर बहुत ताज्जुब हुआ। बहन के सवाल से यही ज़ाहिर होता है कि उसके समाज में पदवी या ओहदे को बहुत महत्त्व दिया जाता है और लोग यह जानना चाहते हैं कि व्यक्ति के पास कितना अधिकार है। मगर इस मामले में हमारा नज़रिया कैसा होना चाहिए?
2. हमें अपनी कलीसिया के भाई-बहनों को किस नज़र से देखना चाहिए?
2 यीशु के शिष्यों में भी यह बहस होती थी कि उनमें सबसे बड़ा कौन है। (मत्ती 20:20-24; मरकुस 9:33-37; लूका 22:24-27) उनके यहूदी समाज में ऊँचे पदवालों को बहुत इज़्ज़त दी जाती थी। इसीलिए यीशु ने अपने शिष्यों को सलाह दी: “तुम रब्बी न कहलाना; क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरु है: और तुम सब भाई हो।” (मत्ती 23:8) “रब्बी” इस खिताब का मतलब है “धर्मगुरु”। बाइबल विद्वान आल्बर्ट बार्न्स कहते हैं कि “रब्बी कहलानेवाले धर्मगुरुओं को अपने खिताब का घमंड था, और वे खुद को आम जनता से ऊँचा समझते थे। मगर इस तरह का रवैया मसीह की शिक्षाओं के बिलकुल खिलाफ है।” इसीलिए सच्चे मसीही अपने ओवरसियरों को दूसरों से ज़्यादा इज़्ज़त देने के लिए उनके नाम के साथ “प्राचीन” यह खिताब नहीं लगाते। (अय्यूब 32:21, 22) और जैसे यहोवा अपने वफादार सेवकों की और यीशु अपने शिष्यों की इज़्ज़त करते हैं, उसी तरह प्राचीन भी खुद को अपने भाई-बहनों से ऊँचा नहीं समझते, बल्कि उनकी इज़्ज़त करते हैं।
यहोवा और यीशु का उदाहरण
3. यहोवा ने स्वर्ग में रहनेवाले प्राणियों को किस तरह इज़्ज़त दी?
3 हालाँकि यहोवा तमाम जहाँ का मालिक है, “परमप्रधान” है, फिर भी उसने शुरू से ही स्वर्ग में रहनेवाले हर प्राणी की इज़्ज़त की है। (भजन 83:18) कैसे? वह उन पर पूरा विश्वास करता है, उन्हें ज़िम्मेदारियाँ सौंपता है और उनके साथ मिलकर काम करता है। यहोवा ने पहले आदमी और औरत को बनाते वक्त अपने एकलौते बेटे को एक कुशल “कारीगर” मानकर अपना हाथ बँटाने दिया। (नीतिवचन 8:27-30; उत्पत्ति 1:26) एक बार जब यहोवा ने दुष्ट राजा अहाब का नाश करने का फैसला किया, तब उसने स्वर्गदूतों को बुलाकर पूछा कि इस काम को कैसे किया जाना चाहिए। इस तरह स्वर्गदूतों की राय माँगकर यहोवा ने स्वर्गदूतों को इज़्ज़त दी।—1 राजा 22:19-23.
4, 5. यहोवा ने इंसानों की इज़्ज़त कैसे की?
4 यहोवा इंसानों की भी इज़्ज़त करता है। कैसे? हालाँकि वह इस विश्वमंडल का महाराजा है, सबसे महान है। इंसान उसके सामने कुछ भी नहीं है, फिर भी वह इंसानों की तरफ ध्यान देता है, उनकी सुनता है। (व्यवस्थाविवरण 3:24) एक भजनहार ने इस तरह एक गीत लिखा: “हमारे परमेश्वर यहोवा के तुल्य कौन है? वह तो ऊंचे पर विराजमान है, और आकाश और पृथ्वी पर भी, दृष्टि करने के लिये झुकता है। वह कंगाल को मिट्टी पर से . . . ऊंचा करता है।”—भजन 113:5-8.
5 यहोवा इंसानों की सुनता भी है इसके लिए सदोम और अमोरा के उदाहरण पर गौर कीजिए। जब यहोवा ने इन शहरों का नाश करने का फैसला किया, तब इब्राहीम परेशान हो गया कि इंसाफ होगा या नहीं। इसलिए उसने यहोवा से कई सवाल पूछे। (उत्पत्ति 18:23-33) हालाँकि यहोवा पहले से ही जानता था कि उनकी बातचीत का अंजाम क्या होगा, फिर भी उसने इब्राहीम के हर सवाल, उसकी हर दलील को इत्मीनान से सुना और उसे यकीन दिलाया कि इंसाफ ज़रूर होगा।
6. जब यहोवा ने हबक्कूक को जवाब दिया तो क्या नतीजा हुआ?
6 एक बार हबक्कूक ने यहोवा से पूछा: “हे यहोवा मैं कब तक तेरी दोहाई देता रहूंगा, और तू न सुनेगा?” क्या हबक्कूक का सवाल सुनकर यहोवा ने यह सोचा कि ‘मुझ से सवाल करने का उसे क्या हक है?’ जी नहीं। यहोवा ने देखा कि हबक्कूक का सवाल सही है। इसलिए उसके सवाल का जवाब देते हुए यहोवा ने कहा कि वह दुष्ट इस्राएलियों पर न्यायदंड सुनाने के लिए जल्द ही कसदियों को खड़ा करेगा। साथ ही यहोवा ने उसे यकीन दिलाया कि उसने जो ‘न्यायदंड सुनाया है, वह निश्चय पूरा होगा।’ (हबक्कूक 1:1, 2, 5, 6, 13, 14; 2:2, 3) इस तरह हबक्कूक की परेशानी की ओर ध्यान देकर यहोवा ने उसे इज़्ज़त दी। इसका नतीजा यह हुआ कि नबी की परेशानी मिट गई और उसमें खुशी की लहर दौड़ उठी। उसका अपने उद्धारकर्ता परमेश्वर यहोवा पर विश्वास पक्का हो गया। हबक्कूक की किताब में दर्ज़ इन बातों को पढ़ने से आज हमारा विश्वास भी पक्का होता है।—हबक्कूक 3:18, 19.
7. पिन्तेकुस्त 33 के दिन पतरस को जो सम्मान मिला उसमें क्या खास बात थी?
7 यीशु ने भी दूसरों को आदर देने में एक बेहतरीन मिसाल रखी है। आइए एक उदाहरण पर गौर करें। यीशु ने अपने चेलों से कहा था कि “जो कोई मनुष्यों के साम्हने मेरा इन्कार करेगा उस से मैं भी अपने स्वर्गीय पिता के साम्हने इन्कार करूंगा।” (मत्ती 10:32, 33) जब यीशु को धोखे से पकड़वाया गया, तो सारे के सारे चेले उसे छोड़कर भाग गए थे। प्रेरित पतरस ने तीन बार उसे जानने तक से इंकार कर दिया था। (मत्ती 26:34, 35, 69-75) मगर फिर भी यीशु ने पतरस का इंकार नहीं किया। क्योंकि उसने पतरस का सिर्फ बाहरी रूप नहीं बल्कि उसके दिल में झाँककर देखा कि उसे अपने किए पर कितना पछतावा है। (लूका 22:61, 62) और उसके 51 दिन बाद ही यानी पिन्तेकुस्त के दिन, यीशु ने पतरस को एक बहुत बड़ा सम्मान दिया। उसने पतरस को अपने 120 शिष्यों का प्रतिनिधि होने और ‘राज्य की पहली कुंजी’ इस्तेमाल करने का सम्मान दिया। (मत्ती 16:19; प्रेरितों 2:14-40) इस तरह पतरस को मौका दिया गया कि वह ‘फिरे, और अपने भाइयों को स्थिर करे।’—लूका 22:31-33.
परिवार के सदस्यों का आदर करना
8, 9. यहोवा और यीशु की मिसाल पर चलते हुए पति अपनी पत्नी का आदर कैसे कर सकता है?
8 यहोवा ने पति को पत्नी पर अधिकार दिया है और वे यहोवा और यीशु की मिसाल पर चलकर अपने अधिकार का सही इस्तेमाल कर सकते हैं। पतरस ने सलाह दी: “वैसे ही हे पतियो, तुम भी बुद्धिमानी से पत्नियों के साथ जीवन निर्वाह करो और स्त्री को निर्बल पात्र जानकर उसका आदर करो।” (1 पतरस 3:7) जी हाँ, स्त्री को निर्बल पात्र समझिए! मान लीजिए कि आप कोई चीनी मिट्टी का बर्तन उठा रहे हैं, तो क्या आप उसे सँभालकर नहीं उठाएँगे? उसी तरह पति को अपनी पत्नी के साथ कोमलता से पेश आना चाहिए। जैसे यहोवा परमेश्वर ने इब्राहीम के साथ बातचीत की, उसी तरह पति भी परिवार के मामले में फैसला करते वक्त पत्नी की राय सुन सकता है। असिद्धता की वज़ह से हम मामले का आगा-पीछा पूरी तरह समझ नहीं सकते। तो क्या ऐसे में पत्नी की राय पर भी गौर करना अकलमंदी नहीं होगी?
9 पुरुष प्रधान देशों में स्त्रियाँ अपने पति को दिल की बात बताने से झिझकती हैं। इसलिए पति को अपनी पत्नी के इस झिझक को समझने की ज़रूरत है। और ऐसे वक्त पर वह यीशु का तरीका अपना सकता है। यीशु ने अपने दुल्हन वर्ग का हिस्सा बननेवाले शिष्यों के साथ बड़े प्यार से व्यवहार किया। उसने उनके माँगने से पहले ही उनकी हर ज़रूरत को पूरा किया। (मरकुस 6:31; यूहन्ना 16:12, 13; इफिसियों 5:28-30) इसके अलावा पति यह भी गौर कर सकता है कि उसकी पत्नी, उसके लिए और परिवार के लिए कितना कुछ करती है। उसके लिए उसकी तारीफ कीजिए और अपने कामों से भी अपनी कदरदानी दिखाइए। यहोवा और यीशु ने भी तो योग्य लोगों की सराहना की, उनकी कदर की और उन्हें आशीष दी। (1 राजा 3:10-14; अय्यूब 42:12-15; मरकुस 12:41-44; यूहन्ना 12:3-8) एशिया की एक बहन ने कहा: “सच्चाई में आने से पहले, जब मैं अपने पति के साथ कहीं बाहर जाती, तो मेरे पति हमेशा मुझसे तीन-चार कदम आगे ही चलते थे और सारा सामान मुझे ही उठाना पड़ता था। मगर अब ऐसा नहीं होता। वे मेरे साथ चलते हैं, सामान उठाने में मेरी मदद करते हैं और इस बात की तारीफ भी करते हैं कि मैं घर अच्छी तरह सँभालती हूँ!” इस तरह जब दिल खोलकर पत्नी की तारीफ की जाती है, तो पत्नी को बेहद खुशी होती है कि उसकी कदर की जा रही है।—नीतिवचन 31:28.
10, 11. यहोवा ने जिस तरह इस्राएल की हठीली जाति के साथ व्यवहार किया उससे माता-पिता क्या सीख सकते हैं?
10 माता-पिता अपने बच्चों के साथ, खासकर ताड़ना देते वक्त, किस तरह पेश आ सकते हैं? इस मामले में भी वे यहोवा की मिसाल पर चल सकते हैं। जब इस्राएली बुरे कामों में लग गए थे, तो यहोवा बार-बार ‘इस्राएल और यहूदा को चिताता रहा,’ मगर वे “हठी बने रहे।” (2 राजा 17:13-15, NHT) इस्राएलियों ने तो यहोवा को “धोखा दिया” और “उससे झूठ बोले।” इसी तरह आज कुछ माता-पिताओं को भी लगे कि उनके बच्चे उनके साथ ऐसा ही करते हैं। तब वे क्या कर सकते हैं? गौर कीजिए कि यहोवा ने क्या किया। हालाँकि इस्राएलियों ने “[यहोवा] की परीक्षा” ली और उसके दिल को बहुत ठेस पहुँचायी, मगर फिर भी यहोवा ‘दयालु रहा, उसने अधर्म को ढांपा, और उनका विनाश नहीं किया।’—भजन 78:36-41, नयी हिन्दी बाइबिल।
11 यहोवा ने इस्राएलियों से बिनती भी की: “अब आओ; हम अपना वाद-विवाद हल कर लें: चाहे तुम्हारे पाप लाल रंग के हों, वे हिम के समान सफेद हो जाएंगे। चाहे वे अर्गवानी रंग के हों, वे ऊन के समान श्वेत हो जाएंगे।” (यशायाह 1:18, नयी हिन्दी बाइबिल) हालाँकि यहोवा की कोई गलती नहीं थी, फिर भी उसने उस हठीली जाति के साथ बातचीत करने में पहल की ताकि मामले को सुलझाया जा सके। माता-पिताओं के लिए यह क्या ही बढ़िया मिसाल! बच्चों की गलती होने पर भी, बातचीत के लिए आप पहल कीजिए। और बच्चों को अपनी पूरी बात कहने दीजिए। उनकी पूरी बात सुनने के बाद उन्हें समझाइए कि उन्होंने क्या गलती की है और क्यों उन्हें सुधार करना होगा।
12. (क) बच्चों को कभी-कभी किसकी ज़रूरत पड़ती है और यह क्यों ज़रूरी है? (ख) बच्चों को ताड़ना देते समय कैसे हम उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाने से दूर रह सकते हैं?
12 कभी-कभी बच्चों को फटकार लगाने की भी ज़रूरत पड़ती है। अगर माता-पिता ऐसा न करें, तो वे याजक एली की तरह होंगे, जो ‘यहोवा से अधिक अपने पुत्रों का आदर’ करता था। (1 शमूएल 2:29) लेकिन ऐसा करते वक्त आप यह ध्यान रख सकते हैं कि बच्चों को इस बात का एहसास हो कि आप उनकी भलाई चाहते हैं, उनसे प्यार करते हैं, इसीलिए उन्हें ताड़ना दे रहे हैं। पौलुस ने पिताओं से कहा: “हे बच्चेवालो अपने बच्चों को रिस न दिलाओ परन्तु प्रभु की शिक्षा, और चितावनी देते हुए, उन का पालन-पोषण करो।” (इफिसियों 6:4) पौलुस के कहने का मतलब है कि पिताओं को निर्दयी या कठोर नहीं होना चाहिए। उन्हें बच्चों की भावनाओं का खयाल रखना चाहिए और उनके आत्म-सम्मान को ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए। हाँ, शुरू-शुरू में यह थोड़ा मुश्किल ज़रूर लगे, इसके लिए शायद बहुत कोशिश करनी पड़े, मगर हिम्मत मत हारिए। आपको अपनी मेहनत का फल ज़रूर मिलेगा।
13. बाइबल के मुताबिक हमें बुज़ुर्ग लोगों को किस नज़र से देखना चाहिए?
13 परिवार में और भी कई तरीकों से आदर दिखाया जा सकता है। एक जापानी कहावत है, “बूढ़े होने पर बच्चों की सुनो।” इसका मतलब है कि जब माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं तो उन्हें अपने जवान बेटे-बेटियों पर हद-से-ज़्यादा अधिकार नहीं जताना चाहिए। उन्हें उनका कहना भी मानना चाहिए। ऐसा करना बाइबल के मुताबिक सही है, मगर इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे अपने बूढ़े माता-पिता की इज़्ज़त करना ही छोड़ दें। क्योंकि नीतिवचन 23:22 में राजा सुलैमान कहता है: “जब तेरी माता बुढ़िया हो जाए, तब भी उसे तुच्छ न जानना।” जब राजा सुलैमान की बूढ़ी माँ बतशेबा उसके पास कुछ फरियाद लेकर आयी, तब उसने उसे अपनी दाहिनी तरफ एक सिंहासन पर बिठाया और उसकी फरियाद सुनी। इस तरह उसने दिखाया कि वह अपनी बूढ़ी माँ की इज़्ज़त करता है।—1 राजा 2:19, 20.
14. हम अपने बुज़ुर्ग भाई-बहनों का आदरमान कैसे कर सकते हैं?
14 कलीसिया में हम अपने बुज़ुर्ग भाई-बहनों का आदर करने में आगे “बढ़” सकते हैं। (रोमियों 12:10) बुढ़ापे की वज़ह से शायद अब वे उतना नहीं कर पाते, जितना पहले किया करते थे और उन्हें यह बात हमेशा खलती भी है। (सभोपदेशक 12:1-7) एक बूढ़ी अभिषिक्त बहन इतनी बीमार थी कि बिस्तर से उठ नहीं सकती थी। उसने बड़े दुःख के साथ कहा: “पता नहीं कब मौत आएगी और मैं स्वर्ग जाकर एक बार फिर यहोवा की सेवा शुरू कर सकूँगी।” ऐसे बुज़ुर्ग भाई-बहनों का जब हम आदर करते हैं, उनकी कदर करते हैं, तो उनका हौसला बढ़ता है। इसीलिए इस्राएलियों को आज्ञा दी गई थी: “पक्के बालवाले के साम्हने उठ खड़े होना, और बूढ़े का आदरमान करना।” (लैव्यव्यवस्था 19:32) हम उनका आदरमान कैसे कर सकते हैं? उन्हें यह एहसास दिलाकर कि वो हमारे लिए कितने अज़ीज़ हैं। साथ ही हम उनके पास बैठकर उनकी आप-बीती सुन सकते हैं। इस तरह न सिर्फ हम उन्हें इज़्ज़त देंगे, बल्कि उनके तज़ुर्बे से हमें भी आध्यात्मिक प्रगति करने में मदद मिल सकती है।
परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो
15. प्राचीन अपने भाई-बहनों की इज़्ज़त कैसे कर सकते हैं?
15 आदर दिखाने में प्राचीन अच्छी मिसाल कायम कर सकते हैं। इससे पूरी कलीसिया आध्यात्मिक रूप से मज़बूत होगी और अच्छी प्रगति करेगी। (1 पतरस 5:2, 3) हालाँकि प्राचीनों पर बहुत ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, मगर अपनी झुंड से प्रेम करनेवाले प्राचीन कलीसिया के जवानों से, पिताओं से, गृहणियों से, बुज़ुर्गों से और अकेले ही परिवार संभालनेवाली बहनों से उनका हाल-चाल जानने के लिए समय निकालते हैं। वे ऐसा हमेशा करते हैं, चाहे उन भाई-बहनों को कोई समस्या हो या न हो। वे उनके दिल की बात सुनते हैं और उनके कामों के लिए उनकी तारीफ करते हैं क्योंकि जितना उन भाई-बहनों के बस में है, उतना वे यहोवा की सेवा कर रहे हैं। जब प्राचीन हमेशा ऐसा करने की ताक में रहते हैं, तो दरअसल वे यहोवा के नक्शेकदम पर चलते हैं।
16. हमें प्राचीनों और सभी भाई-बहनों को बराबर इज़्ज़त क्यों देनी चाहिए?
16 भाई-बहनों की तारीफ करनेवाले प्राचीन पौलुस की इस सलाह को मानते हैं: “भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे पर मया रखो; परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो।” (रोमियों 12:10) मगर उन देशों के प्राचीनों के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा जहाँ लोगों में बड़े-छोटे का भेद किया जाता है। मसलन, एक एशियाई देश में, “भाई” के लिए दो शब्द हैं। एक शब्द है व्यक्ति के पद या औहदे के हिसाब से आदर देने के लिए, जिसे प्राचीनों और दूसरे बुज़ुर्ग लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। और दूसरा शब्द साधारण है, जो बाकी लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन उन्हें यह सलाह दी गयी कि सभी के लिए साधारण शब्द का ही इस्तेमाल करें, क्योंकि यीशु ने कहा था, “तुम सब भाई हो।” (मत्ती 23:8) शायद आपके यहाँ छोटे-बड़े का भेद करनेवाले शब्द इस्तेमाल नहीं किए जाते हों, मगर फिर भी हम सभी को होशियार रहना चाहिए कि ऐसी भावना हमारी कलीसिया में न आने पाए।—याकूब 2:4.
17. (क) प्राचीनों का मिलनसार होना क्यों ज़रूरी है? (ख) इस मामले में वे यहोवा से क्या सीख सकते हैं?
17 यह सच है कि पौलुस ने कहा था कि कुछ प्राचीन “दो गुने आदर” के योग्य समझे जाएँ, मगर प्राचीनों को याद रखना चाहिए कि वे सभी “भाई” हैं। (1 तीमुथियुस 5:17) अगर हम पापी और असिद्ध इंसान “साहस के साथ” और बेझिझक इस तमाम जहाँ के सम्राट और मालिक यहोवा के “अनुग्रह के सिंहासन के निकट” जा सकते हैं, तो ज़रा सोचिए कि आप प्राचीनों के पास आने के लिए भाइयों को कितना बेझिझक महसूस करना चाहिए! (इब्रानियों 4:16; इफिसियों 5:1) इसके लिए आपको सबके साथ मिलनसार होना होगा। आप कैसे पता लगा सकते हैं कि आप कितने मिलनसार हैं? देखिए कि भाई-बहन कितनी बार आपसे सलाह-मशवरा लेने या अपना सुझाव देने आते हैं। इस मामले में आप यहोवा से बहुत कुछ सीख सकते हैं। यहोवा ने दूसरों पर पूरा विश्वास किया, उन्हें ज़िम्मेदारियाँ सौंपी और साथ मिलकर काम किया। इस तरह उनका सम्मान किया। अगर कोई भाई या बहन कुछ सुझाव देते हैं, भले ही वह बहुत बढ़िया न हो, तो भी आपको उसे सुनना चाहिए और कलीसिया की फिक्र करने के लिए उनका शुक्रियादा करना चाहिए। याद कीजिए कि यहोवा ने किस तरह इब्राहीम के सवाल और हबक्कूक की गिड़गिड़ाहट सुनकर उनका मान रखा।
18. जिन्हें सुधार की ज़रूरत है, उनकी मदद करते वक्त प्राचीन यहोवा की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
18 तब क्या जब कोई भाई या बहन गलती कर बैठता है और उसे सुधार की ज़रूरत होती है? (गलतियों 6:1) ऐसे में भी प्राचीनों को उनके सम्मान को ठेस नहीं पहुँचाना चाहिए क्योंकि यहोवा की नज़रों में वे अब भी अनमोल हैं। एक भाई ने कहा: “मुझे ऐसे भाई की सलाह मानने में ज़्यादा आसानी होती है जो मेरे आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाए बगैर मुझे सलाह देता है।” इस भाई ने कितना सच कहा! हाँ, कभी-कभी गलती करनेवाले भाई की पूरी बात सुनने के लिए काफी वक्त लग सकता है, लेकिन अगर आप पहले इत्मीनान से उसे सुनेंगे, और फिर सलाह देंगे, तब वह उस सलाह को बड़ी आसानी से कबूल करेगा। यह भी याद रखिए कि यहोवा को इस्राएलियों को बार-बार समझाना पड़ा। मगर उसने इत्मीनान से काम लिया क्योंकि वह उनसे प्रेम करता था। (2 इतिहास 36:15; तीतुस 3:2) भाइयों को सलाह देते वक्त अगर आप उनसे हमदर्दी जताएँ, तो आपकी सलाह उनके दिल को छू जाएगी।—नीतिवचन 17:17; फिलिप्पियों 2:2, 3; 1 पतरस 3:8.
19. जो सच्चाई में नहीं हैं उनके साथ हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए?
19 हमें बाहरवालों का भी मान रखना चाहिए, क्योंकि वे भी आगे जाकर हमारे भाई-बहन बन सकते हैं। आज भले ही वे हमारे संदेश में खास दिलचस्पी न दिखाते हों, मगर फिर भी हमें धीरज रखना चाहिए। यहोवा “नहीं चाहता, कि कोई नाश हो; बरन यह कि सब को मन फिराव का अवसर मिले।” (2 पतरस 3:9) तो क्या हमें भी ऐसा ही नहीं सोचना चाहिए? अगर हम हमेशा लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करेंगे, तो हो सकता है कि वे हमारे संदेश को स्वीकार करें। मगर हमें इस बात से भी होशियार रहना चाहिए कि उनके इतने करीब न चले जाएँ कि अपनी आध्यात्मिकता को ही खतरे में डाल लें। (1 कुरिन्थियों 15:33) हम अपने दायरे में रहकर भी लोगों पर “कृपा” दिखा सकते हैं और इससे यह ज़ाहिर होगा कि भले ही वे सच्चाई में नहीं हैं मगर फिर भी हम उन्हें तुच्छ नहीं समझते।—प्रेरितों 27:3.
20. यहोवा और यीशु की तरह हमें भी क्या करना चाहिए?
20 जी हाँ, हम कभी न भूलें कि यहोवा और यीशु मसीह हम में से हरेक का मान रखते हैं, हमारी इज़्ज़त करते हैं। इसलिए आइए हम भी एक दूसरे का आदर करने में आगे रहें। और प्रभु यीशु की यह बात याद रखें: “तुम सब भाई हो।”—मत्ती 23:8.
आप क्या जवाब देंगे?
• अपने भाई-बहनों के साथ आपको कैसा व्यवहार करना चाहिए?
• यहोवा और यीशु की मिसाल से आपने दूसरों का आदर करने के बारे में क्या सीखा?
• किस तरह पति और माता-पिता परिवार के सदस्यों का सम्मान बनाए रख सकते हैं?
• प्राचीन किन कामों से दिखा सकता है कि वह कलीसिया के सदस्यों को अपना भाई समझता है?
[पेज 18 पर तसवीर]
दिल खोलकर अपनी पत्नी की तारीफ करके उसका मान रखिए
[पेज 18 पर तसवीर]
बच्चों की बात सुनकर उनका मान रखिए
[पेज 18 पर तसवीर]
कलीसिया के भाई-बहनों का आत्म-सम्मान बनाए रखिए