क्या आप यीशु की तरह सिखाते हैं?
“भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी की नाईं उन्हें उपदेश देता था।”—मत्ती ७:२८, २९.
१. जब यीशु गलील में सिखा रहा था, कौन उसके पीछे आए और यीशु की प्रतिक्रिया क्या थी?
यीशु जहाँ कहीं गया, उसके पास भीड़ इकट्ठी हुई। “यीशु सारे गलील में फिरता हुआ उन की सभाओं में उपदेश करता और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता को दूर करता रहा।” जैसे-जैसे उसकी गतिविधियों की ख़बर फैली, “गलील और दिकापुलिस और यरूशलेम और यहूदिया से और यरदन के पार से भीड़ की भीड़ उसके पीछे हो ली।” (मत्ती ४:२३, २५) उन्हें देखने पर “उस को लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे उन भेड़ों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से थे।” जब यीशु उन लोगों को सिखाता था तब वे उनके प्रति उसके तरस और कोमल स्नेह को महसूस कर सकते थे; यह उनके ज़ख़मों पर राहत देनेवाले एक मरहम की तरह था जिसने उन्हें उसकी ओर आकर्षित किया।—मत्ती ९:३५, ३६.
२. यीशु के चमत्कारों के अतिरिक्त, किस बात ने बड़ी संख्या में भीड़ को आकर्षित किया?
२ यीशु ने क्या ही चमत्कारिक शारीरिक चंगाई की—कोढ़ियों को शुद्ध किया, बहरों को कान दिए, अंधों की आँखें खोलीं, लँगड़ों को चलाया, मुर्दों को फिर से जीवित किया! यीशु के द्वारा काम कर रही यहोवा की शक्ति के ये आश्चर्यजनक प्रदर्शन, निश्चित ही बड़ी संख्या में भीड़ आकर्षित करते! लेकिन, केवल चमत्कारों ने ही उन्हें आकर्षित नहीं किया; यीशु के सिखाते समय प्रदान की गयी आध्यात्मिक चंगाई के लिए भी बड़ी संख्या में भीड़ आयी। उदाहरण के लिए, यीशु का प्रसिद्ध पहाड़ी उपदेश सुनने के बाद उनकी प्रतिक्रिया नोट कीजिए: “जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी की नाईं उन्हें उपदेश देता था।” (मत्ती ७:२८, २९) अपनी शिक्षाओं का समर्थन करने के लिए उनके रब्बियों ने प्राचीन रब्बियों की मौखिक परम्पराओं का हवाला दिया। यीशु ने उन्हें परमेश्वर की ओर से अधिकार से सिखाया: “मैं जो बोलता हूं, वह जैसा पिता ने मुझ से कहा है वैसा ही बोलता हूं।”—यूहन्ना १२:५०.
उसकी शिक्षा हृदय तक पहुँची
३. अपने संदेश को प्रस्तुत करने का यीशु का तरीक़ा, शास्त्रियों और फरीसियों के तरीक़े से कैसे फ़रक था?
३ यीशु की शिक्षा और शास्त्रियों और फरीसियों की शिक्षा के बीच न सिर्फ़ अन्तर्विषय का फ़रक था—मनुष्यों की भारी मौखिक परम्पराओं की विषमता में परमेश्वर की सच्चाई—बल्कि उसके सिखाने का तरीक़ा भी फ़रक था। शास्त्री और फरीसी अहंकारी और कठोर थे। वे अभिमान से बड़ी-बड़ी उपाधियों की माँग करते थे और भीड़ को ‘स्रापित लोग’ समझकर तिरस्कार या महत्त्वहीनता से व्यवहार करते थे। लेकिन यीशु नम्र, मृदुल, कृपालु, सहानुभूतिशील, और अकसर नम्य था, और उसे उन पर तरस आया। यीशु ने केवल सही शब्दों से ही नहीं, परन्तु अपने हृदय से निकले आकर्षक शब्दों से भी सिखाया, जो सीधे उसके सुननेवालों के हृदयों में गए। उसके आनन्दप्रद संदेश ने लोगों को उसकी ओर आकर्षित किया, उसकी बातें सुनने के लिए मंदिर में जल्दी जाने, नज़दीकी से उसका पीछा करने और उसकी बातें आनन्द से सुनने के लिए उन्हें प्रेरित किया। बड़ी संख्या में लोग उसे सुनने के लिए आए, उन्होंने घोषित किया: “किसी मनुष्य ने कभी ऐसी बातें न कीं।”—यूहन्ना ७:४६-४९; मरकुस १२:३७; लूका ४:२२; १९:४८; २१:३८.
४. यीशु के प्रचार में ख़ासकर किस बात ने अनेक लोगों को आकर्षित किया?
४ निश्चित ही, लोगों का उसकी शिक्षा के प्रति आकर्षित होने का एक कारण था उसका उदाहरणों का प्रयोग। यीशु ने वही देखा जो दूसरों ने देखा, लेकिन उसने उन बातों के बारे में सोचा जिनके बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा था। खेतों में उगनेवाले सोसन, घोंसले बनाते पक्षी, बीज बोते मनुष्य, खोए हुए मेम्नों को ढूँढकर लाते चरवाहे, पुराने कपड़ों पर पैबंद लगाती स्त्रियाँ, बाज़ार में खेलते बच्चे, अपने जालों को खींचते मछुए—सामान्य रूप से पायी जानेवाली चीज़ें जिन्हें सभी ने देखा था—यीशु की नज़रों में कभी सामान्य नहीं थीं। जहाँ कहीं उसने दृष्टि की, वहाँ उसने वह देखा जो परमेश्वर और उसके राज्य को सचित्रित करने के लिए या उसके चारों ओर के मानव समाज के बारे में एक मुद्दा बताने के लिए वह इस्तेमाल कर सकता था।
५. यीशु के उदाहरण किस पर आधारित थे, और किस बात ने उसके दृष्टान्तों को प्रभावकारी बनाया?
५ यीशु के उदाहरण साधारण बातों पर आधारित हैं जिन्हें लोगों ने अनेक बार देखा है, और जब सच्चाइयों को इन परिचित चीज़ों के साथ जोड़ा जाता है, तो ये सुननेवालों के मन में जल्दी से और गहराई से बैठ जाती हैं। ऐसी सच्चाइयाँ सिर्फ़ सुनी नहीं जातीं; वे मन की आँखों से देखी जाती हैं, और बाद में आसानी से याद आ जाती हैं। यीशु के दृष्टान्तों की विशिष्टता थी सरलता, अर्थात् वे उन अनावश्यक बातों से रहित थे जो शायद सच्चाइयों की उनकी समझ के बीच आते और बाधा डालते। उदाहरण के लिए, पड़ोसी-समान सामरी के दृष्टान्त पर ग़ौर कीजिए। आप सुस्पष्ट रूप से समझ जाते हैं कि एक अच्छा पड़ोसी कैसा होता है। (लूका १०:२९-३७) फिर यीशु ने दो पुत्रों के बारे में उदाहरण दिया—एक जिसने कहा कि वह दाख की बारी में काम करेगा लेकिन नहीं किया, और दूसरा जिसने कहा कि वह नहीं करेगा लेकिन उसने किया। आप जल्द समझ लेते हैं कि वास्तविक आज्ञाकारिता के लिए प्रमुख बात क्या है—नियुक्त काम को करना। (मत्ती २१:२८-३१) यीशु की सजीव शिक्षा के दौरान किसी का मन ऊँघता या भटकता नहीं था। उन्हें सुनने और देखने में काफ़ी व्यस्त रखा जाता था।
यीशु नम्य बना जब प्रेम ने ऐसा करना उचित दिखाया
६. कोमल होना, या नम्य होना ख़ासकर कब सहायक होता है?
६ कई बार जब बाइबल कोमल होने के बारे में बताती है, एक फुटनोट दिखाता है कि इसका मतलब है नम्य होना। जब तनूकारक परिस्थितियाँ होती हैं, तब परमेश्वर की ओर से बुद्धि नम्य होती है। कभी-कभी हमें कोमल या नम्य होना होता है। जब प्रेम ऐसा करना उचित दिखाता है और प्रायश्चित नम्य बनने के लिए एक आधार प्रदान करता है, तब प्राचीनों को नम्य होने के लिए तत्पर होना चाहिए। (१ तीमुथियुस ३:३; याकूब ३:१७) यीशु ने नम्य होने के अद्भुत उदाहरण छोड़े, जब दया या करुणा ने ऐसा करना उचित दिखाया, तब वह सामान्य नियमों से हटकर नम्य बना।
७. यीशु के नम्य होने के कौन-से कुछ उदाहरण हैं?
७ यीशु ने एक बार कहा: “जो कोई मनुष्यों के साम्हने मेरा इन्कार करेगा उस से मैं भी अपने स्वर्गीय पिता के साम्हने इन्कार करूंगा।” जबकि, पतरस ने उसका तीन बार इनकार किया, फिर भी उसने पतरस को अस्वीकार नहीं किया। तनूकारक परिस्थितियाँ थीं, जिनको स्पष्टतः यीशु ने ध्यान में रखा। (मत्ती १०:३३; लूका २२:५४-६२) उस समय भी तनूकारक परिस्थितियाँ थीं जब एक अशुद्ध स्त्री, जिसके लहू बहता था, ने भीड़ में आने के द्वारा मूसा की व्यवस्था तोड़ी। यीशु ने उसकी भी निन्दा नहीं की। उसने उसकी निराशा को समझा। (मरकुस १:४०-४२; ५:२५-३४; साथ ही लूका ५:१२, १३ भी देखिए।) यीशु ने अपने प्रेरितों से कहा था कि मसीहा के तौर पर उसकी पहचान नहीं कराएँ, फिर भी, जब उसने कुएँ पर एक सामरी स्त्री को ख़ुद की पहचान मसीहा के रूप में कराई, तब वह उस नियम से सख़्ती से अड़ा नहीं रहा। (मत्ती १६:२०; यूहन्ना ४:२५, २६) इन सभी मामलों में, प्रेम, दया, और करुणा ने ऐसा नम्य बनना उचित बनाया।—याकूब २:१३.
८. शास्त्री और फरीसी नियमों में कब ढील देते थे, और कब नहीं?
८ अनम्य शास्त्रियों और फरीसियों के साथ बात अलग थी। वे अपने मामलों में सब्त की परम्परा तोड़ कर अपने बैलों को पानी पिलाते। या अगर उनका बैल या पुत्र कुएँ में गिर जाता, तो उसे बाहर निकालने के लिए वे सब्त तोड़ देते। लेकिन सामान्य लोगों के लिए, वे बिलकुल नम्य नहीं बनते थे! वे “आप उन्हें [माँगों को] अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते” थे। (मत्ती २३:४; लूका १४:५) यीशु के लिए, लोग अधिकतर नियमों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थे; फरीसियों के लिए, नियम लोगों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थे।
“आज्ञा का पुत्र” बनना
९, १०. यरूशलेम लौटने के बाद, यीशु के माता-पिता ने उसे कहाँ पाया, और यीशु के प्रश्न करने का क्या अर्थ था?
९ कुछ लोगों को दुःख है कि यीशु के लड़कपन की सिर्फ़ एक ही घटना अभिलिखित है। फिर भी अनेक लोग उस घटना के बड़े महत्त्व को समझने से चूक जाते हैं। यह हमारे लिए लूका २:४६, ४७ में बतायी गयी है: “तीन दिन के बाद उन्हों ने उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया। और जितने उस की सुन रहे थे, वे सब उस की समझ और उसके उत्तरों से चकित थे।” किटल की थियोलॉजिकल डिक्शनरी ऑफ द न्यू टेस्टामेन्ट (अंग्रेज़ी) यह विचार सामने लाती है कि इस मामले में “प्रश्न करते” के लिए यूनानी शब्द मात्र एक लड़के की जिज्ञासा नहीं था। यह शब्द न्यायिक जाँच, जाँच-पड़ताल, और जिरह में किए गए प्रश्न, जैसे मरकुस १०:२ और १२:१८-२३ में बताए गए हैं, ‘सदूकियों और फरीसियों के कोंचनेवाले और धूर्त प्रश्नों’ को भी सूचित कर सकता है।
१० वही कोश आगे कहता है: “इस प्रयोग को ध्यान में रखते हुए यह पूछा जा सकता है कि क्या . . . [लूका] २:४६ उस लड़के की प्रश्न करने की जिज्ञासा से ज़्यादा उसकी सफल बहस को सूचित करता है। [आयत] ४७ दूसरे दृष्टिकोण, अर्थात् उसकी सफल बहस के सामंजस्य में होगी।”a रॉदरहैम द्वारा आयत ४७ का अनुवाद इसे एक नाटकीय मुक़ाबले के रूप में प्रस्तुत करता है: “अब सभी जिन्होंने उसकी सुनी, उसकी समझ और उसके उत्तरों के कारण अति उत्तेजित हो गए।” रॉबर्टसन की वर्ड पिक्चर्स् इन द न्यू टेस्टामेन्ट (अंग्रेज़ी) कहती है कि उनके निरंतर विस्मय का मतलब है कि “वे इतने विस्मित हो गए कि मानो उनकी आँखें बाहर आ रही हों।”
११. मरियम और यूसुफ ने जो कुछ देखा और सुना, उसके प्रति उनकी क्या प्रतिक्रिया थी, और एक धर्मवैज्ञानिक कोश क्या संकेत देता है?
११ आख़िरकार, जब यीशु के माता-पिता मंदिर में आए, “वे चकित हुए।” (लूका २:४८) रॉबर्टसन कहता है कि इस अभिव्यक्ति के यूनानी शब्द का मतलब है “धक्का मारना, प्रहार करके भगाना।” वह आगे कहता है कि यूसुफ और मरियम ने जो देखा और सुना उससे उन्हें “धक्का लगा।” एक अर्थ में, यीशु पहले से ही एक विस्मयकारी शिक्षक था। और मंदिर की इस घटना को देखते हुए, किटल की रचना यह दावा करती है कि “यीशु अपने लड़कपन से ही उस संघर्ष की शुरूआत करता है जिसमें उसके विरोधियों को आख़िरकार हार माननी होगी।”
१२. धार्मिक नेताओं के साथ यीशु की बाद की चर्चाओं में क्या विशिष्ट था?
१२ और उन्होंने हार मानी! वर्षों बाद, इसी तरह के प्रश्नों के द्वारा यीशु ने फरीसियों को हराया, जब तक कि “उस दिन से किसी को फिर उस से कुछ पूछने का हियाव न हुआ।” (मत्ती २२:४१-४६) सदूकियों को भी पुनरुत्थान के प्रश्न पर उसी तरह चुप कर दिया गया, और “उन्हें फिर उस से कुछ और पूछने का हियाव न हुआ।” (लूका २०:२७-४०) शास्त्रियों को भी कोई सफलता नहीं मिली। उनमें से एक व्यक्ति की यीशु के साथ बहस होने के बाद, “किसी को फिर उस से कुछ पूछने का साहस न हुआ।”—मरकुस १२:२८-३४.
१३. किस बात ने मंदिर की घटना को यीशु के जीवन में महत्त्वपूर्ण बनाया, और वह कौन-सी अतिरिक्त सचेतना को सूचित करती है?
१३ वर्णन करने के लिए, यीशु के लड़कपन की घटनाओं में से मंदिर में यीशु और उपदेशकों से सम्बन्धित इस घटना को क्यों चुना गया? यह यीशु के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। जब यीशु क़रीब १२ वर्ष का था, वह यहूदियों के अनुसार एक “आज्ञा का पुत्र” बना, जो उसकी सभी धर्मविधियों का पालन करने के लिए ज़िम्मेदार था। जब यीशु के कारण मरियम और यूसुफ को हुए मानसिक तनाव के बारे में मरियम ने यीशु से शिकायत की, तब उसके पुत्र के उत्तर ने यह सूचित किया कि संभवतः उसे अपने जन्म के चमत्कारिक ढंग और अपने मसीहाई भविष्य का एहसास था। इस बात का संकेत उसके यह बताने से मिलता है कि बिलकुल सीधे तरीक़े से, परमेश्वर उसका पिता था: “तुम मुझे क्यों ढूंढ़ते थे? क्या नहीं जानते थे, कि मुझे अपने पिता के भवन में होना अवश्य है?” बाइबल में अभिलिखित यीशु के ये पहले शब्द हैं, और ये पृथ्वी पर उसके भेजे जाने के यहोवा के उद्देश्य के प्रति उसकी सचेतना को सूचित करते हैं। अतः, यह पूरी घटना बहुत महत्त्व रखती है।—लूका २:४८, ४९.
यीशु बच्चों को प्रेम करता और समझता है
१४. मंदिर में युवा यीशु का वृतांत कौन-से दिलचस्प मुद्दों के बारे में युवा लोगों को अवगत करता है?
१४ यह वृतांत ख़ासकर युवा लोगों के लिए रोमांचक होना चाहिए। यह दिखाता है कि पुरुषत्व की ओर बढ़ते वक़्त यीशु ने कितने अध्यवसायी रूप से अध्ययन किया होगा। इस १२-वर्षीय ‘आज्ञा के पुत्र’ की बुद्धिमानी पर मंदिर के रब्बी विस्मयाकुल हो गए थे। फिर भी वह यूसुफ के साथ बढ़ई की दुकान में काम करता था, उसके और मरियम के “वश में” रहा और “परमेश्वर और मनुष्य के अनुग्रह में” बढ़ा।—लूका २:५१, ५२.
१५. अपनी पार्थिव सेवकाई के दौरान यीशु कैसे युवा लोगों का हिमायती था, और आज युवा लोगों के लिए इसका क्या मतलब है?
१५ अपनी पार्थिव सेवकाई के दौरान यीशु युवा लोगों का बड़ा हिमायती था: “जब महायाजकों और शास्त्रियों ने इन अद्भुत कामों को, जो उस ने किए, और लड़कों को मन्दिर में दाऊद की सन्तान को होशाना पुकारते हुए देखा, तो क्रोधित होकर उस से कहने लगे, क्या तू सुनता है कि ये क्या कहते हैं? यीशु ने उन से कहा, हां; क्या तुम ने यह कभी नहीं पढ़ा, कि बालकों और दूध पीते बच्चों के मुंह से तू ने स्तुति सिद्ध कराई?” (मत्ती २१:१५, १६; भजन ८:२) वह आज उन सैकड़ों-हज़ार युवा लोगों का भी उतना ही हिमायती है, जो अपनी खराई रख रहे हैं और स्तुति दे रहे हैं, उनमें से कुछ युवाओं ने तो ऐसा अपनी जान की क़ीमत पर भी किया है!
१६. (क) एक छोटे बच्चे को अपने बीच में खड़ा करके यीशु ने अपने प्रेरितों को कौन-सा सबक़ सिखाया? (ख) यीशु के जीवन की कौन-सी अति कठिन घड़ी में भी उसके पास बच्चों के लिए समय था?
१६ जब प्रेरितों ने इस बारे में बहस की कि उनमें से कौन सबसे बड़ा है, तब यीशु ने उन बारहों से कहा: “यदि कोई बड़ा होना चाहे, तो सब से छोटा और सब का सेवक बने। और उस ने एक बालक को लेकर उन के बीच में खड़ा किया, और उसे गोद में लेकर उन से कहा। जो कोई मेरे नाम से ऐसे बालकों में से किसी एक को भी ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है; और जो कोई मुझे ग्रहण करता, वह मुझे नहीं, बरन मेरे भेजनेवाले को ग्रहण करता है।” (मरकुस ९:३५-३७) इसके अलावा, जब वह एक भयानक कठिन परीक्षा और मृत्यु का सामना करने के लिए आख़िरी बार यरूशलेम की ओर बढ़ रहा था, उसने बच्चों के लिए समय निकाला: “बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो, क्योंकि परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है।” फिर उसने “उन्हें गोद में लिया, और उन पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दी।”—मरकुस १०:१३-१६.
१७. यीशु के लिए बच्चों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना आसान क्यों था, और बच्चों को उसके बारे में क्या याद रखना चाहिए?
१७ यीशु जानता है कि प्रौढ़ लोगों के संसार में एक बालक होना कैसा होता है। वह प्रौढ़ लोगों के साथ रहा, उनके साथ काम किया, उनके वश में होने का अनुभव लिया, और उनके द्वारा प्रेम किए जाने की स्नेही और सुरक्षित भावना को भी महसूस किया। बच्चों, यही यीशु आपका दोस्त है; वह आपके लिए मरा, और अगर आप उसकी आज्ञाओं को मानते हैं तो आप सर्वदा जीवित रहेंगे।—यूहन्ना १५:१३, १४.
१८. हमें कौन-सा रोमहर्षक विचार मन में रखना चाहिए, ख़ासकर तनाव या संकट के समय में?
१८ यीशु की आज्ञा के अनुसार कार्य करना उतना मुश्किल नहीं है जितना कि शायद प्रतीत हो। युवा लोगों, वह आपकी और सभी दूसरों की मदद के लिए सहजता से उपलब्ध है, वैसे ही जैसे हम मत्ती ११:२८-३० में पढ़ते हैं: “हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; [या “मेरे साथ मेरे जूए में आओ,” फुटनोट NW] और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।” ज़रा सोचिए, जब आप यहोवा की सेवा करते हुए अपना जीवन बिताते हैं, जूए को सहज करते और बोझ को हलका करते हुए, यीशु आपके साथ-साथ चल रहा है। यह हम सब के लिए एक रोमहर्षक विचार है!
१९. यीशु के सिखाने के तरीक़ों के बारे में हम कौन-से प्रश्नों पर समय-समय पर पुनर्विचार कर सकते हैं?
१९ यीशु के सिखाने के मात्र कुछ तरीक़ों पर पुनर्विचार करने के बाद, क्या हम यह पाते हैं कि हम उसकी तरह सिखाते हैं? जब हम शारीरिक रूप से बीमार या आध्यात्मिक रूप से भूखे लोगों को देखते हैं, तो क्या उनकी मदद करने के लिए हम से जो हो सकता है वह करने के लिए हमें उन पर तरस आता है? जब हम दूसरों को उपदेश देते हैं, तो क्या हम परमेश्वर का वचन सिखाते हैं, या फरीसियों की तरह, हम ख़ुद अपने विचारों को सिखाते हैं? क्या हम अपने आस-पास की साधारण चीज़ों को देखने के प्रति सचेत हैं, जिन्हें आध्यात्मिक सच्चाइयों की समझ को स्पष्ट करने, दृष्टिगत् करने, निश्चित रूप देने, और बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है? क्या हम किन्हीं नियमों में नम्य बनते हैं जब, परिस्थितियों की वजह से, ऐसे नियमों के प्रयोग में नम्य बनने से प्रेम और दया ज़्यादा उचित रीति से अभिव्यक्त होते हैं? और बच्चों के बारे में क्या? क्या हम उन्हें वैसी ही कोमल परवाह और प्रेममय-कृपा दिखाते हैं जैसी यीशु ने दिखायी? क्या आप अपने बच्चों को उसी तरह से अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिस तरह से यीशु ने एक लड़के के रूप में किया? क्या आप यीशु की तरह दृढ़ता से काम करेंगे, लेकिन पश्चातापी लोगों को स्नेह से स्वीकार करने के लिए भी तैयार रहेंगे, वैसे ही जैसे एक मुर्ग़ी अपने पंखों के नीचे अपने बच्चों को इकट्ठा करती है?—मत्ती २३:३७.
२०. जब हम अपने परमेश्वर की सेवा करते हैं, हम कौन-से आनन्दप्रद विचार से ख़ुद को सांत्वना दे सकते हैं?
२० अगर यीशु की तरह सिखाने के लिए हम अपनी पूरी कोशिश करें, तो निश्चित ही वह हमें ‘अपने साथ अपने जूए में आने देगा।’—मत्ती ११:२८-३०.
[फुटनोट]
a निश्चित ही, यह भरोसा करने के लिए हमारे पास हर कारण है कि यीशु अपने से बड़ों, ख़ासकर पक्के बालवालों और याजकों के प्रति उचित आदर प्रदर्शित करता।—लैव्यव्यवस्था १९:३२; साथ ही प्रेरितों २३:२-५ से तुलना कीजिए।
क्या आपको याद है?
◻ यीशु के पास भीड़ क्यों इकट्ठी होती थी?
◻ कभी-कभी यीशु कुछ नियमों पर नम्य क्यों बना?
◻ मंदिर के उपदेशकों से यीशु के प्रश्न करने से हम क्या सीख सकते हैं?
◻ बच्चों के साथ यीशु के सम्बन्ध से हम कौन-से सबक़ सीख सकते हैं?