यहोवा—सच्चे न्याय और धार्मिकता का स्रोत
“वह चट्टान है, उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्वर है, उस में कुटिलता [अन्याय] नहीं।”—व्यवस्थाविवरण ३२:४.
१. हमें पैदा होने के वक्त से ही न्याय की ज़रूरत क्यों होती है?
जैसे सभी को प्यार की भूख होती है, वैसे ही हम सभी की ख्वाहिश होती है कि लोग हमारे साथ न्याय से पेश आएँ। जैसा कि एक अमरीकी नेता थॉमस जेफरसन ने लिखा, “[न्याय] हमारे अंदर और हमारे स्वभाव में है . . . ठीक उसी तरह हमारे शरीर का हिस्सा है जैसे छूने, देखने या सुनने की शक्ति है।” इसमें कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि यहोवा ने हमें अपने स्वरूप में रचा है। (उत्पत्ति १:२६) वाकई उसने हमें ऐसे गुणों का वरदान दिया है जो उसी का व्यक्तित्व ज़ाहिर करते हैं और इनमें से एक गुण है न्याय। इसलिए हमारे पैदा होने के वक्त से ही हमारे अंदर न्याय की ज़रूरत होती है और यह ख्वाहिश भी होती है कि हम सच्चे न्याय और धार्मिकतावाली एक दुनिया में रहें।
२. यहोवा के लिए न्याय कितना महत्त्वपूर्ण है और हमें परमेश्वर के न्याय का मतलब समझने की ज़रूरत क्यों है?
२ यहोवा के बारे में बाइबल हमें यकीन दिलाती है: “उसकी सारी गति न्याय की है।” (व्यवस्थाविवरण ३२:४) लेकिन अन्याय से भरी इस दुनिया में परमेश्वर के न्याय का मतलब समझ पाना आसान नहीं है। फिर भी हम परमेश्वर के वचन से समझ सकते हैं कि वह कैसे न्याय करता है और हमारे अंदर परमेश्वर के कार्य करने के अद्भुत तरीकों के लिए कदर और भी बढ़ सकती है। (रोमियों ११:३३) न्याय के बारे में बाइबल का दृष्टिकोण जानना बहुत ज़रूरी है क्योंकि हो सकता है कि न्याय के बारे में अभी तक हमारा दृष्टिकोण इंसानों के दिमाग के मुताबिक ही हो। इंसान की नज़रों में न्याय का मतलब कानून को सही तरह से लागू करने के अलावा और कुछ नहीं है। या फिर जैसा फिलॉसफर फ्रांसिस बेकन ने लिखा, “न्याय का मतलब है हर इंसान को उसका हक देना।” लेकिन यहोवा के न्याय में इससे भी ज़्यादा शामिल है।
यहोवा का न्याय खुशियाँ लाता है
३. बाइबल में न्याय और धार्मिकता के लिए इस्तेमाल किए गए मूल भाषा के शब्दों से क्या सीखा जा सकता है?
३ यहोवा के न्याय को हम पूरी तरह समझ पाएँगे अगर हम ध्यान दें कि बाइबल की मूल भाषा के शब्दों को कैसे इस्तेमाल किया गया था।a दिलचस्पी की बात है कि शास्त्र में न्याय और धार्मिकता के बीच बहुत ज़्यादा फर्क देखने को नहीं मिलता। दरअसल, इनके इब्रानी शब्द समान विचार ज़ाहिर करने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं जैसा हम आमोस ५:२४ में देखते हैं, जहाँ यहोवा अपने लोगों को प्रेरित करता है: “न्याय को नदी की नाईं, और धर्म [धार्मिकता] महानद की नाईं बहने दो।” इसके अलावा ज़ोर देने के लिए “न्याय और धर्म” कई बार एकसाथ इस्तेमाल किए गए हैं।—भजन ३३:५; यशायाह ३३:५; यिर्मयाह ३३:१५; यहेजकेल १८:२१; ४५:९.
४. न्याय से काम करने का क्या मतलब है और न्याय का सबसे श्रेष्ठ स्तर क्या है?
४ इन इब्रानी और यूनानी शब्दों का क्या अर्थ निकलता है? शास्त्र के हिसाब से न्याय से काम करने का मतलब है जो सही और उचित है वही करना। क्योंकि यहोवा नैतिक नियम और सिद्धांतों का बनानेवाला है या क्या सही और उचित है यह बताता है, इसलिए जिस तरह यहोवा काम करता है वही न्याय करने का सबसे श्रेष्ठ स्तर है। थियोलॉजिकल वर्डबुक ऑफ द ओल्ड टेस्टामेंट समझाती है कि जिस इब्रानी शब्द का अनुवाद धार्मिकता (सेदेक) किया गया है “वह नीति, नैतिकता के स्तर को सूचित करता है और बेशक पुराने नियम में यह स्तर परमेश्वर के स्वभाव में है और उसकी इच्छा भी है।” इसलिए परमेश्वर अपने सिद्धांतों को जिस तरह लागू करता है और खासकर वह जिस तरह असिद्ध इंसानों के साथ बर्ताव करता है, उससे सच्चे न्याय और धार्मिकता का सही महत्त्व नज़र आता है।
५. परमेश्वर के न्याय के साथ कौन-कौन से गुण जुड़े हुए हैं?
५ शास्त्र साफ-साफ दिखाता है कि परमेश्वर का न्याय कठोर और अटल होने के बजाय खुशियाँ लाता है। दाऊद ने गाया: “यहोवा न्याय से प्रीति रखता; और अपने भक्तों को न तजेगा।” (भजन ३७:२८) परमेश्वर का न्याय उसे प्रेरित करता है कि अपने सेवकों के साथ वफादारी और दया से बर्ताव करे। परमेश्वर का न्याय हमारी ज़रूरतों को जानता है और हमारी असिद्धताओं के लिए रिआयत भी देता है। (भजन १०३:१४) इसका मतलब यह नहीं कि परमेश्वर दुष्टता को बरदाश्त करता है, क्योंकि ऐसा करने से अन्याय बढ़ेगा। (१ शमूएल ३:१२, १३; सभोपदेशक ८:११) यहोवा ने मूसा को बताया कि वह “दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करुणामय और सत्य” है। जबकि वह गलतियों और अपराधों को माफ करने के लिए तैयार है, परमेश्वर उन्हें दण्ड से नहीं बचाएगा जो दण्ड के लायक हैं।—निर्गमन ३४:६, ७.
६. यहोवा पृथ्वी पर अपने बच्चों के साथ कैसे बर्ताव करता है?
६ जब हम इस बात पर मनन करते हैं कि यहोवा किस तरह न्याय करता है, तब हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि वह एक कठोर न्यायाधीश है, जिसका काम सिर्फ मुजरिमों को सज़ा देना है। इसके बजाय, हमें उसे एक प्यार करनेवाला, साथ ही दृढ़ पिता समझना चाहिए जो अपने बच्चों के साथ हमेशा बढ़िया बर्ताव करता है। भविष्यवक्ता यशायाह ने कहा, “हे यहोवा, तू हमारा पिता है।” (यशायाह ६४:८) न्यायप्रिय और धर्मी पिता के नाते, जो सही है उसके लिए अटल रहने और पृथ्वी पर अपने बच्चों के साथ कोमलता भरी दया दिखाने में यहोवा संतुलन बनाए रखता है। हमें मुश्किलों या शारीरिक कमज़ोरियों की वज़ह से उसकी मदद या माफी की ज़रूरत है।—भजन १०३:६, १०, १३.
न्याय का समाचार देना
७. (क) यशायाह की भविष्यवाणी से हम परमेश्वर के न्याय के बारे में क्या सीखते हैं? (ख) अन्य जातियों को न्याय के बारे में सिखाने में यीशु की क्या भूमिका है?
७ यहोवा के न्याय में दया का गुण मसीहा के आने से रोशन हुआ। जैसे भविष्यवक्ता यशायाह ने भविष्यवाणी की थी, यीशु ने परमेश्वर का न्याय सिखाया और खुद उसके मुताबिक जीवन जीया। तो यह साफ है कि परमेश्वर के न्याय में अत्याचार सहनेवाले लोगों के साथ नरमी से बर्ताव करना शामिल है। इस तरह वे इतना टूट नहीं जाते कि उन्हें बहाल करना नामुमकिन हो जाए। यहोवा का “सेवक,” यीशु “अन्यजातियों को” परमेश्वर के न्याय के इस पहलू का “समाचार” देने आया था। परमेश्वर के न्याय का क्या मतलब है इसका हमें जीता जागता उदाहरण देने के द्वारा उसने ऐसा किया। राजा दाऊद की “धर्मी डाली” (NHT) के रूप में, यीशु ‘सच्चा न्याय करने तथा धार्मिकता में तत्पर रहने’ के लिए उत्सुक था।—यशायाह १६:५; ४२:१-४; मत्ती १२:१८-२१; यिर्मयाह ३३:१४, १५.
८. पहली सदी में सच्चा न्याय और धार्मिकता क्यों धुँधला गए थे?
८ यहोवा के न्याय के इस गुण के बारे में यह सही जानकारी खासतौर पर सामान्य युग पहली सदी में ज़रूरी थी। यहूदी बुज़ुर्गों और धर्म के अगुवों—सदूकियों, फरीसियों और अन्य लोगों—ने न्याय और धार्मिकता के विकृत नज़रिए का बखान किया और उसके मुताबिक काम किए। जिसका नतीजा यह हुआ कि वे आम लोग जिन्हें सदूकियों और फरीसियों द्वारा ठहरायी गयी माँगों को पूरा कर पाना नामुमकिन लगता था, यह समझ बैठे कि परमेश्वर की धार्मिकता का स्तर बहुत ऊँचा है और उन तक पहुँचा नहीं जा सकता। (मत्ती २३:४; लूका ११:४६) यीशु ने दिखाया कि ऐसा नहीं था। उसने इन्हीं आम लोगों में से अपने चेले चुने और उन्हें परमेश्वर की धार्मिकता के स्तर सिखाए।—मत्ती ९:३६; ११:२८-३०.
९, १०. (क) शास्त्री और फरीसी अपनी धार्मिकता किस तरह दिखाने की कोशिश करते थे? (ख) कैसे और क्यों यीशु ने यह दिखाया कि शास्त्रियों और फरीसियों के रीति-रिवाज़ व्यर्थ थे?
९ दूसरी तरफ, फरीसी सब लोगों के सामने प्रार्थना करने या दान देने के द्वारा अपने “धर्म के काम” दिखाने की कोशिश कर रहे थे। (मत्ती ६:१-६) उन्होंने अनगिनत नियमों और निर्देशों का पालन करने के द्वारा भी अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करने की कोशिश की—जिनमें से ज़्यादातर नियम उनके अपने बनाए हुए थे। ऐसे कामों की वज़ह से वे “न्याय को और परमेश्वर के प्रेम को टाल” रहे थे। (लूका ११:४२) बाहर से वे शायद धर्मी दिखते हों लेकिन अंदर से वे “अधर्म” या दुष्टता से भरे थे। (मत्ती २३:२८) अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो वे परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में बहुत कम जानते थे।
१० इस कारण यीशु ने अपने अनुयायियों को चेतावनी दी: “यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फरीसियों की धार्मिकता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे।” (मत्ती ५:२०) यीशु और सदूकियों और फरीसियों के बीच अकसर होनेवाले विवादों की वज़ह वह बड़ा फर्क था जो, यीशु के व्यवहार में दिखाई देनेवाले परमेश्वर के न्याय और सदूकियों और फरीसियों की तंगदिली और खुद को धर्मी जताने की कोशिश के बीच था।
परमेश्वर का न्याय बनाम विकृत न्याय
११. (क) फरीसियों ने सब्त के दिन चंगा करने पर यीशु से सवाल क्यों पूछा? (ख) यीशु के जवाब ने क्या दिखाया?
११ सामान्य युग ३१ के वसंत में यीशु ने गलील में अपनी सेवकाई के वक्त आराधनालय में एक आदमी को देखा जिसका हाथ सूख गया था। क्योंकि वह सब्त का दिन था तो फरीसियों ने यीशु से पूछा: “क्या सब्त के दिन चंगा करना उचित है?” इस गरीब आदमी की पीड़ा के लिए दर्द महसूस करने के बजाय, वे यीशु को किसी कारण दोषी ठहराने की मंशा रखते थे और यह बात उनके सवाल से साफ जाहिर होती है। इसमें ताज्जुब नहीं कि यीशु उनके हृदय की कठोरता को देखकर दुःखी हुआ! फिर उसने फरीसियों से उनके जैसा ही एक तीखा सवाल पूछा: “क्या सब्त के दिन भला करना उचित है या बुरा करना?” जब वे चुप रहे तब यीशु ने अपने सवाल का जवाब यह पूछते हुए दिया कि क्या वे सब्त के दिन गड़हे में गिरी अपनी भेड़ को नहीं निकालते।b “भला, मनुष्य का मूल्य भेड़ से कितना बढ़ कर है”! यीशु ने बेजोड़ तर्क के साथ जवाब दिया। “इसलिये सब्त के दिन भलाई करना उचित [या, सही] है” उसने निष्कर्ष दिया। परमेश्वर के न्याय को इंसानों के रीति-रिवाज़ों की ज़ंजीरों में कभी-भी जकड़ना नहीं चाहिए। यह बात सही तरह समझाने के बाद, यीशु ने उस आदमी के हाथ को चंगा किया।—मत्ती १२:९-१३; मरकुस ३:१-५.
१२, १३. (क) शास्त्रियों और फरीसियों से अलग यीशु ने पापियों की मदद करने की अपनी दिलचस्पी कैसे दिखायी? (ख) परमेश्वर के न्याय और आत्म-धर्माभिमान में क्या फर्क है?
१२ फरीसी शारीरिक रूप से अपंग लोगों के लिए शायद ही कोई परवाह दिखाते थे, लेकिन आध्यात्मिक रूप से गरीब लोगों की तो उन्हें ज़रा भी परवाह नहीं थी। धर्मी बनने के इस विकृत नज़रिए की वज़ह से वे महसूल लेनेवालों और पापियों से दूर रहने लगे और उनसे घृणा करने लगे। (यूहन्ना ७:४९) फिर भी ऐसे बहुत से पीड़ित लोगों ने यीशु की शिक्षा को सुना, बेशक उन्होंने देखा होगा कि वह उनकी मदद करना चाहता है ना कि उन्हें दोषी ठहराना। (मत्ती २१:३१; लूका १५:१) लेकिन फरीसियों ने आध्यात्मिक रूप से बीमार लोगों को चंगा करने की यीशु की कोशिशों को नीचा दिखाया। वह उसे बुरा-भला कहते हुए कुड़कुड़ाए, “यह तो पापियों से मिलता है और उन के साथ खाता भी है।” (लूका १५:२) उनके आरोप के जवाब में यीशु फिर से भेड़ों का दृष्टांत देता है। ठीक जैसे एक चरवाहा अपनी खोई हुई भेड़ को पाकर बहुत आनंदित होता है, वैसे ही स्वर्गदूत एक पापी के पश्चाताप करने पर आनंदित होते हैं। (लूका १५:३-७) खुद यीशु भी आनंदित हुआ जब वह जक्कई को उसके पाप के पिछले जीवन से पश्चाताप करने में मदद कर सका। उसने कहा, “मनुष्य का पुत्र खोए हुओं को ढूंढ़ने और उन का उद्धार करने आया है।”—लूका १९:८-१०.
१३ इस तरह के विवादों ने परमेश्वर के न्याय और आत्म-धर्माभिमान के बीच फर्क को साफ ज़ाहिर किया। ईश्वरीय न्याय चंगा करता और बचाता है जबकि आत्म-धर्माभिमान कुछ लोगों को ऊँचा बनाता है मगर ज़्यादातर लोगों को दोषी ठहराता है। खोखली रीतियों और मनुष्यों द्वारा बनाई गई परंपराओं ने सदूकियों और फरीसियों को हठधर्मी और अहंकारी बना दिया, लेकिन यीशु ने सही कहा था कि उन्होंने “व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्वास को छोड़ दिया” था। (मत्ती २३:२३) हम जो कुछ करते हैं उसमें सच्चा न्याय करने में आइए हम यीशु की नकल करें और आत्म-धर्माभिमान के गड़हे में गिरने से बचे रहें।
१४. यीशु के एक चमत्कार ने कैसे दिखाया कि परमेश्वर का न्याय एक व्यक्ति के हालात को ध्यान में रखता है?
१४ जबकि यीशु ने फरीसियों के मनमाने नियमों को नहीं माना, उसने मूसा की व्यवस्था का पालन किया। (मत्ती ५:१७, १८) ऐसा करने में उसने धर्मी व्यवस्था की ऊपरी समझ से ही काम नहीं लिया बल्कि उसने उसके असली मकसद और उसकी अंदरूनी समझ से काम लिया। जब एक स्त्री ने, जिसे १२ वर्ष से लहू बहने का रोग था, उसके वस्त्र को छुआ और चंगी हो गई, तो यीशु ने उससे कहा: “बेटी तेरे विश्वास ने तुझे चंगा किया है, कुशल से चली जा।” (लूका ८:४३-४८) यीशु के हमदर्दी भरे शब्दों ने इस बात को साबित किया कि परमेश्वर के न्याय ने उसके हालात को ध्यान में रखा था। हालाँकि वह रीति के अनुसार अशुद्ध थी और भीड़ में शामिल होने की वज़ह से नियम के अनुसार उसने मूसा की व्यवस्था को तोड़ा था, लेकिन उसका विश्वास प्रतिफल के योग्य था।—लैव्यव्यवस्था १५:२५-२७. रोमियों ९:३०-३३ से तुलना कीजिए।
धार्मिकता सबके लिए है
१५, १६. (क) दयालु सामरी के बारे में यीशु का दृष्टांत हमें न्याय के बारे में क्या सिखाता है? (ख) हमें “अपने को बहुत धर्मी” दिखाने से क्यों बचे रहना चाहिए?
१५ ईश्वरीय न्याय में दया के पहलू पर ज़ोर देने के अलावा यीशु ने अपने शिष्यों को यह भी सिखाया कि इस न्याय में सभी लोग शामिल हैं। उसके लिए यहोवा की यह इच्छा थी कि वह “अन्यजातियों के लिये न्याय प्रगट” करे। (यशायाह ४२:१) दयालु सामरी के यीशु के मशहूर दृष्टांत का यही मकसद था। यह दृष्टांत उस आदमी के सवाल का जवाब था जो एक व्यवस्थापक था और वह “अपनी तईं धर्मी ठहराने की इच्छा” रखता था। उसने पूछा, “मेरा पड़ोसी कौन है?” बेशक वह यहूदी लोगों तक ही पड़ोसी होने की ज़िम्मेदारी निभाना चाहता है। यीशु के दृष्टांत में सामरी ने परमेश्वर की धार्मिकता को दिखाया, क्योंकि वह दूसरी जाति के एक अजनबी व्यक्ति के लिए अपना समय और पैसा खर्च कर उसकी मदद करने के लिए तैयार था। सवाल पूछनेवाले को यह सलाह देकर यीशु ने अपना दृष्टांत खत्म किया: “तू भी ऐसा ही कर।” (लूका १०:२५-३७) अगर हम भी लोगों की भलाई इसी तरह करें, चाहे उनकी जाति या स्तर कोई भी क्यों न हो, तो हम परमेश्वर के न्याय की नकल कर रहे होंगे।—प्रेरितों १०:३४, ३५.
१६ दूसरी तरफ सदूकियों और फरीसियों के उदाहरण हमें याद दिलाते हैं कि अगर हम ईश्वरीय न्याय दिखाना चाहते हैं तो हमें “अपने को बहुत धर्मी” नहीं समझना चाहिए। (सभोपदेशक ७:१६) दूसरों पर रोब जमाने के लिए धार्मिकता का दिखावा करने से या इंसानों के बनाए नियमों को हद-से-ज़्यादा महत्त्व देने से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होगा।—मत्ती ६:१.
१७. हमारे लिए परमेश्वर की तरह न्याय से काम करना इतना ज़रूरी क्यों है?
१७ एक और कारण कि क्यों यीशु अन्यजातियों को परमेश्वर के न्याय के गुण का समाचार देना चाहता था ताकि उसके सभी शिष्य इस गुण को दिखाना सीख सकें। यह इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है? शास्त्र हमें प्रोत्साहित करता है कि हम ‘परमेश्वर के सदृश्य बनें’ और परमेश्वर के सभी मार्ग न्याय के हैं। (इफिसियों ५:१) इसी तरह, मीका ६:८ समझाता है कि यहोवा की एक माँग यह भी है कि परमेश्वर के साथ-साथ चलते हुए हम ‘न्याय से काम करें।’ इसके अलावा सपन्याह २:२, ३ हमें याद दिलाता है कि अगर हम यहोवा के क्रोध के दिन शरण पाना चाहते हैं तो उस दिन के आने से पहले हमें ‘धर्म को ढूंढ़ना’ होगा।
१८. अगले लेख में किन सवालों के जवाब दिए जाएँगे?
१८ इसलिए यह कठिन अंतिम दिन न्याय से काम करने के लिए ‘ग्रहण किए जाने का समय’ है। (२ कुरिन्थियों ६:२, NHT) हम निश्चित हो सकते हैं कि अगर हम अय्यूब की तरह ‘धर्म को पहिने रहें’ और ‘न्याय हमारे लिये बागे का काम दे’ तो यहोवा हमें आशीष देगा। (अय्यूब २९:१४) यहोवा के न्याय पर भरोसा भविष्य की ओर विश्वास से देखने में हमारी कैसे मदद करेगा? इसके अलावा, धार्मिकता की “नई पृथ्वी” की प्रतीक्षा करते हुए ईश्वरीय न्याय आध्यात्मिक रूप से कैसे हमारी रक्षा करेगा? (२ पतरस ३:१३) अगला लेख इन सवालों के जवाब देगा।
[फुटनोट]
a इब्रानी शास्त्र में तीन मुख्य शब्द इस्तेमाल किए गए हैं। इनमें से एक (मिशपत) को अकसर “न्याय” अनुवादित किया जाता है। दूसरे दो शब्दों (सेदेक और उससे ही मिलता-जुलता शब्द सेदेकाह) को ज़्यादातर “धार्मिकता” अनुवादित किया गया है। जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “धार्मिकता” (दिकाइओसाईने) किया गया है उसकी परिभाषा यूँ दी गई है, “सही या न्यायप्रिय होने का गुण।”
b यीशु ने बढ़िया उदाहरण चुना था क्योंकि यहूदियों का मौखिक नियम खासतौर पर उन्हें सब्त के दिन मुसीबत में फँसे किसी जानवर को बचाने की इज़ाज़त देता था। और कई अवसरों पर, इसी बात को लेकर आमना-सामना हुआ, जैसे कि क्या सब्त के दिन चंगा करना उचित है या नहीं।—लूका १३:१०-१७; १४:१-६; यूहन्ना ९: १३-१६.
क्या आप बता सकते हैं?
◻ परमेश्वर के न्याय का क्या मतलब है?
◻ यीशु ने अन्य जातियों को न्याय के बारे में कैसे सिखाया?
◻ फरीसियों की धार्मिकता विकृत क्यों थी?
◻ हमें न्याय से काम क्यों करना चाहिए?
[पेज 8 पर तसवीर]
यीशु ने परमेश्वर के न्याय की विशालता स्पष्ट की