विवाह बंधन को कैसे मज़बूत बनाया जाए
“क्या हर एक कारण से अपनी पत्नी को त्यागना उचित है?” उन फरीसियों ने पूछा जो श्रेष्ठ शिक्षक, यीशु मसीह को फाँसने की कोशिश कर रहे थे। उसने प्रथम मानव विवाह का उल्लेख देकर उन्हें उत्तर दिया और उस विषय पर एक स्तर प्रस्तुत किया: “जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे।”
फरीसियों ने तर्क-वितर्क किया कि मूसा ने तो “त्यागपत्र” प्रस्तुत करने का आदेश देकर तलाक़ के लिए प्रबन्ध किया। यीशु ने उन्हें उत्तर दिया: “मूसा ने तुम्हारे मन की कठोरता के कारण तुम्हें अपनी अपनी पत्नी को छोड़ देने की आज्ञा दी, परन्तु आरम्भ से ऐसा नहीं था। और मैं तुम से कहता हूं, कि जो कोई व्यभिचार को छोड़ और किसी कारण से, अपनी पत्नी को त्यागकर, दूसरी से ब्याह करे, वह व्यभिचार करता है।”—मत्ती १९:३-९.
आदि में, विवाह को एक स्थायी बंधन होना था। मृत्यु भी प्रथम विवाहित दम्पति को अलग न करती, क्योंकि वे अनन्तकालीन जीवन की आशा सहित परिपूर्ण मनुष्यों के तौर पर सृजे गए थे। लेकिन, उन्होंने पाप किया। उनके पाप से मानव विवाह को क्षति पहुँची। शत्रु मृत्यु विवाहित दम्पतियों को अलग करने लगी। परमेश्वर की दृष्टि में मृत्यु विवाह की समाप्ति है, जैसे कि हम बाइबल में पढ़ते हैं: “जब तक किसी स्त्री का पति जीवित रहता है, तब तक वह उस से बन्धी हुई है, परन्तु जब उसका पति मर जाए, तो जिस से चाहे विवाह कर सकती है, परन्तु केवल प्रभु में।” (१ कुरिन्थियों ७:३९) यह सती जैसी धार्मिक धारणाओं से बहुत भिन्न है, जिसके अनुसार एक पत्नी को अपने पति की मृत्यु के समय जलकर मर जाने के लिए राज़ी या मजबूर किया जाता है, इस विश्वास के साथ कि किसी मरणोत्तर जीवन में विवाह बंधन जारी रहता है।
मूसा का व्यवस्था प्रबन्ध
जिस समय मूसा की व्यवस्था दी गई, उस समय वैवाहिक सम्बन्ध इस हद तक बिगड़ चुके थे कि इस्राएलियों के मन की कठोरता को ध्यान में रखते हुए, यहोवा ने तलाक़ के लिए एक प्रबन्ध किया। (व्यवस्थाविवरण २४:१) परमेश्वर का यह उद्देश्य नहीं था कि इस्राएली लोग अपनी पत्नियों को छोटी-मोटी ग़लतियों के कारण तलाक़ देने के लिए इस व्यवस्था का दुरुपयोग करें, जैसे उसकी इस आज्ञा से स्पष्ट है कि उन्हें अपने जाति भाइयों से अपने ही समान प्रेम करना था। (लैव्यव्यवस्था १९:१८) त्याग-पत्र प्रस्तुत करना भी एक अपरोधक का काम करता था क्योंकि, त्याग-पत्र लिखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में, जो पति तलाक़ चाहता था उसे विधिवत् प्राधिकृत पुरुषों से सलाह लेनी पड़ती थी, जो ज़रूर समझौता करवाने की कोशिश करते। जी नहीं, परमेश्वर ने यह व्यवस्था इसलिए नहीं दी थी कि एक व्यक्ति “हर एक कारण से” अपनी पत्नी को तलाक़ देने का अधिकार रखे।—मत्ती १९:३.
तो भी, इस्राएलियों ने आख़िरकार उस व्यवस्था के उद्देश्य की उपेक्षा की और अपनी इच्छा के अनुसार हर किसी आधार पर तलाक़ देने के लिए उस वाक्य खंड का अनुचित लाभ उठाया। सामान्य युग पूर्व पाँचवीं सदी तक, वे अपनी जवानी की संगिनी से विश्वासघात कर रहे थे, और उन्हें हर एक कारण से तलाक़ दे रहे थे। यहोवा ने दृढ़ रीति से उन्हें बताया कि उसे स्त्री-त्याग से घृणा है। (मलाकी २:१४-१६) इसी पृष्ठाधार पर यीशु ने उस प्रकार के तलाक़ की निन्दा की, जिस प्रकार से उसके दिनों में इस्राएली लोग तलाक़ का अभ्यास कर रहे थे।
तलाक़ के लिए एकमात्र विधिसंगत आधार
परन्तु, यीशु ने तलाक़ के लिए एक विधिसंगत आधार का ज़िक्र ज़रूर किया: व्यभिचार। (मत्ती ५:३१, ३२; १९:८, ९) यहाँ अनुवादित शब्द “व्यभिचार,” धर्मशास्त्रीय विवाह की सीमा से बाहर सभी अनुचित लैंगिक संभोग को सम्मिलित करता है, चाहे यह समलिंग व्यक्ति या विलिंग व्यक्ति या एक पशु के साथ किया गया हो।
तब भी, यीशु विश्वासघात करनेवाले साथी से तलाक़ लेने के पक्ष में नहीं बोल रहा था। यह निर्दोष साथी पर निर्भर है कि वह सम्मिलित परिणामों पर विचार करे और निर्णय करे कि वह तलाक़ लेना चाहता है या नहीं। जो पत्नियाँ इस धर्मशास्त्रीय आधार पर तलाक़ लेने की सोच रही हैं, वे शायद परमेश्वर के उस कथन पर भी विचार करना चाहेंगी जब उसने प्रथम स्त्री पर उसके पाप के लिए न्याय सुनाया। मृत्युदण्ड के अतिरिक्त, परमेश्वर ने विशिष्ट रूप से हव्वा से कहा: “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” (उत्पत्ति ३:१६) सी. एफ. कील तथा एफ. डॅलिट्श की कमेंटरी ऑन दी ओल्ड टेस्टामेंट (Commentary on the Old Testament), इस “लालसा” का वर्णन इस प्रकार करती है कि यह है “ऐसी इच्छा जो लगभग एक बीमारी के समान होती है।” निःसंदेह, यह लालसा हरेक पत्नी में उतनी तीव्र नहीं होती है, लेकिन यदि एक निर्दोष पत्नी तलाक़ लेने की सोच रही है, तो उसके लिए यह बेहतर होगा कि वह उस भावात्मक ज़रूरत पर भी विचार करे जो स्त्रियों ने हव्वा से उत्तराधिकार में पायी है। फिर भी, क्योंकि दोषी साथी के विवाह से बाहर संभोग करने के कारण निर्दोष साथी को लैंगिक रूप से फैलनेवाली बीमारियाँ लग सकती हैं, जिसमें एडस् भी सम्मिलित है, कुछ व्यक्तियों ने तलाक़ लेने का निर्णय किया है, जैसा कि यीशु ने स्पष्ट किया।
पारिवारिक समस्याओं के बीज बोए गए
लोगों के मन की कठोरता उस पाप से शुरू हुई जो प्रथम मानव दम्पति ने परमेश्वर के विरुद्ध किया। (रोमियों ५:१२) पारिवारिक झगड़ों के बीज तब बोए गए जब प्रथम मानव जोड़े ने अपने स्वर्गीय पिता के विरुद्ध पाप किया। यह कैसे? जब प्रथम स्त्री, हव्वा, एक साँप द्वारा निषिद्ध वृक्ष से खाने के लिए प्रलोभित हुई, तो उसने सीधे जाकर उस फल को खा लिया। उस अर्थपूर्ण निर्णय को लेने के बाद ही उसने अपने पति से बात की कि उस साँप ने उसे क्या बताया था। (उत्पत्ति ३:६) हाँ, उसने अपने पति की राय पूछे बिना कार्य किया। यही है उन समस्याओं का आदिप्ररूप जिनका सामना आज परिवार कर रहे हैं—दिल खोलकर बात करने की कमी।
बाद में, जब उनके पाप के परिणाम सामने आए, तब आदम और हव्वा दोनों ने उसी युक्ति का सहारा लिया जो आज बहुत से दम्पति समस्या में पड़ जाने के समय लेते हैं, यानी, दूसरों पर दोष लगाना। प्रथम पुरुष, आदम, ने यह कहते हुए अपने किए का दोष अपनी पत्नी और यहोवा दोनों पर लगाया: “जिस स्त्री को तू ने मेरे संग रहने को दिया है उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे दिया, और मैं ने खाया।” क्रमशः, उस स्त्री ने कहा: “सर्प ने मुझे बहका दिया तब मैं ने खाया।”—उत्पत्ति ३:१२, १३.
आदम और हव्वा पर यहोवा के न्याय के उद्घोषण ने विकसित होनेवाली समस्याओं में एक और तत्त्व का पूर्वानुमान लगाया। अपने पति के साथ उसके सम्बन्ध के बारे में, यहोवा ने हव्वा से कहा: “वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” हमारे पहले लेख में उल्लिखित ईसाओ की तरह, आज बहुत से पति अपनी पत्नियों की भावनाओं की क़दर न करते हुए, निर्दय रीति से उन पर प्रभुता करते हैं। तब भी, बहुत सी पत्नियाँ अपने पति के ध्यान के लिए लालसा करती रहती हैं। जब वह लालसा पूरी नहीं होती, तब पत्नियाँ शायद उस ध्यान के लिए माँग करें और स्वार्थी रीति से कार्य करें। बहुत से पतियों द्वारा प्रभुता करने से और बहुत सी पत्नियों द्वारा लालसा करने से, स्वार्थ अभिभावी होता है, और शान्ति लुप्त हो जाती है। एक प्रकाशित रिपोर्ट जिसका शीर्षक है “आज के तलाक़ों का विश्लेषण कैसे किया जाए,” में शुन्स्के सेरीज़ावा ने कहा: “आज तलाक़ों का विश्लेषण करना अचानक असंभव हो जाएगा, यदि हम ‘अपनी ही मनमानी करने,’ यानी, अपने ख़ुद के हित को प्रथम स्थान देने की उस प्रवृत्ति को अनदेखा करें जो इस समस्या की जड़ है।”
लेकिन, यहोवा ने अपने वचन में मार्गदर्शन का प्रबन्ध किया है ताकि आज्ञाकारी विवाहित दम्पति अपनी अपरिपूर्ण दशा में भी काफ़ी हद तक वैवाहिक ख़ुशी का आनन्द उठा सकें। ईसाओ ने परमेश्वर के निर्देश का अनुसरण किया और वह अब एक सुखी पारिवारिक ज़िन्दगी का आनन्द उठा रहा है। आइए हम देखें कि कैसे बाइबल सिद्धांत वैवाहिक बंधनों को मज़बूत बनाने में लोगों की मदद करते हैं।
बात कीजिए
बहुत से विवाहों में, संचार की कमी, दूसरों पर दोष लगाने की प्रवृत्ति, और स्वार्थी मनोवृत्ति पति और पत्नी के लिए एक दूसरे की मनोभावनाओं को समझना कठिन बनाती हैं। अनुसंधायिका कैरिल एस. ऐवरी कहती है, “क्योंकि घनिष्ठता के लिए भावनाओं का आदान-प्रदान एक पूर्वाकांक्षा है, इसलिए घनिष्ठता सम्पूर्ण भरोसे की माँग करती है। और आज भरोसा बहुत कम पाया जाता है।” आदान-प्रदान की गई अंतर्तम भावनाओं के संचय से ऐसा भरोसा बढ़ता है। इसके लिए पति और पत्नी को दिल खोलकर बात करने की आवश्यकता है।
घनिष्ठ विचारों के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करने के लिए नीतिवचन यह कहते हुए एक दृष्टांत का प्रयोग करता है: “मनुष्य के मन की युक्ति अथाह तो है, तौभी समझवाला मनुष्य उसको निकाल लेता है।” (नीतिवचन २०:५) पति और पत्नी को समझदार होना चाहिए और उन्हें अपने साथी के हृदय के गहरे विचारों को निकालना चाहिए। कल्पना कीजिए कि आपका साथी परेशान है। ऐसी प्रतिक्रिया दिखाने के बजाय कि: “मेरा दिन भी बुरा था,” क्यों न कृपालु रीति से पूछें: “क्या आज तुम्हारा दिन बुरा बीता? क्या हुआ?” अपने साथी की बातों को सुनने के लिए शायद काफ़ी समय और कोशिश की ज़रूरत हो, लेकिन इस प्रकार समय बिताना आम तौर पर अधिक सुखकर, संतोषजनक और समय बचाऊ होता है, बजाय इसके कि आप अपने साथी की उपेक्षा करें और आपको उन तीव्र मनोभावनाओं का सामना करना पड़े जो बाद में फूट निकलेंगी।
एक दूसरे का भरोसा पाने के लिए, दोनों को ईमानदार होना चाहिए और अपनी भावनाओं को ऐसे व्यक्त करने की कोशिश करनी चाहिए कि दूसरा साथी इसे समझ सके। “हर एक . . . सच बोले,” परमेश्वर का वचन आग्रह करता है, “क्योंकि हम आपस में एक दूसरे के अंग हैं।” (इफिसियों ४:२५) सच बोलने के लिए समझदारी की ज़रूरत होती है। कल्पना कीजिए कि एक पत्नी महसूस करती है कि उसकी नहीं सुनी जा रही है। बोलने से पहले, उसे इस लोकोक्ति पर विचार करना चाहिए: “जो संभलकर बोलता है, वही ज्ञानी ठहरता है; और जिसकी आत्मा शान्त रहती है, सोई समझवाला पुरुष ठहरता है।” (नीतिवचन १७:२७) अपने पति पर दोष लगाने के बजाय कि, “तुम मेरी कभी नहीं सुनते हो!” यह अधिक बेहतर होगा कि वह शान्त रीति से अपनी भावनाओं को व्यक्त करे, इससे पहले कि उसके अंदर कुण्ठा और निराशा बढ़े। शायद वह ऐसा कुछ कहकर अपनी भावनाओं को प्रकट कर सकती है, “मैं जानती हूँ कि आप व्यस्त हैं, लेकिन मुझे बहुत ही ख़ुशी होगी यदि मैं आपके साथ थोड़ा ज़्यादा समय बिता सकूँ।”
सच में, “बिना सम्मति की कल्पनाएं निष्फल हुआ करती हैं।” (नीतिवचन १५:२२) आपकी पत्नी आप से प्रेम करती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह आपके मन के विचारों को जान सकती है। आपको वाक्पटुता के साथ अपनी पत्नी को बताना चाहिए कि आप कैसा महसूस करते हैं। यह आपकी मदद करेगा कि एक मसीही विवाहित दम्पति की हैसियत से, आप “मेल के बन्ध में आत्मा की एकता रखने” के लिए प्रेममय समायोजन करें।—इफिसियों ४:२, ३.
काज़ुओ का उदाहरण लीजिए, जिस पर पत्नी का रोब था और जिसकी कमज़ोरी थी जुआ खेलना। उसने ख़ुद को कई सैकड़ों हज़ारों डॉलरों के कर्ज़े में डूबा हुआ पाया। अपने कर्ज़ों को चुकाने के लिए रुपया उधार लेने के कारण, वह उस दलदल में और धँसता चला गया। फिर उसने बाइबल का अध्ययन करना शुरू किया और आख़िरकार उसे अपनी समस्या के बारे में अपनी पत्नी को बताने का साहस मिला। वह उसके दोषारोपण का सामना करने के लिए तैयार था। लेकिन, वह चकित रह गया जब उसकी पत्नी ने, जो उससे भी ज़्यादा समय से बाइबल का अध्ययन कर रही थी, शान्त रीति से उत्तर दिया: “चलो देखते हैं कि हम इन कर्ज़ों को कैसे उतार सकते हैं।”
अगले दिन से ही शुरू करते हुए, उन्होंने अपने लेनदारों से भेंट की और अपना कर्ज़ उतारने लगे, यहाँ तक कि उन्होंने अपना घर भी बेच दिया। कर्ज़ों को उतारने में लगभग एक साल लगा। उसकी पत्नी, कीमिए, में परिवर्तन कैसे आया? वह कहती है: “फिलिप्पियों अध्याय ४, आयत ६ और ७, में पाए जानेवाले शब्द सचमुच सही हैं। ‘किसी भी बात की चिन्ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।’” उसने आगे कहा: “मेरी एक सहेली यह देखकर चकित हुई कि संकटों के बावजूद भी मैं कितनी हँसमुख थी, और उसने मेरे साथ बाइबल अध्ययन करना शुरू किया।” काज़ुओ और उसकी पत्नी का अब बपतिस्मा हो गया है और वे इस समय एक सुखी पारिवारिक ज़िन्दगी का आनन्द ले रहे हैं।
सच बोलकर एक दूसरे पर भरोसा करने के अलावा, उपरोक्त अनुभव वाले पति और पत्नियों ने कुछ और भी किया जो दम्पतियों को अपनी वैवाहिक समस्याओं को सुलझाने में मदद करता है। उन्होंने वैवाहिक प्रबन्ध के आरंभक, यहोवा परमेश्वर से संचार क़ायम रखा। दम्पत्तियों द्वारा दबावों और कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद भी, वह उन्हें परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, की आशिष देगा यदि वे उसके सिद्धांतों को लागू करने में अपनी पूरी कोशिश करें और बाक़ी उसके हाथ में छोड़ दें। एक साथ मिलकर प्रार्थना करना ख़ासकर सहायक होता है। जिस समस्या का सामना वह और उसकी पत्नी कर रहे हैं उस पर परमेश्वर के मार्गदर्शन और निर्देशन की खोज करते हुए, पति को अगुवाई करके परमेश्वर के सामने ‘अपने मन की बातें खोलकर कहनी’ चाहिए। (भजन ६२:८) यहोवा परमेश्वर निश्चित ही ऐसी प्रार्थनाओं को सुनेगा।
जी हाँ, विवाह के बंधन को मज़बूत बनाना संभव है। अपनी सारी अपरिपूर्णता समेत एक अशान्त समाज में जीते हुए भी, विवाहित दम्पति इस समय अपने सम्बन्ध में काफ़ी हद तक ख़ुशी प्राप्त कर सकते हैं। आप वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित मेकिंग यॉर फ़ैमिली लाइफ़ हैपी पुस्तक में अतिरिक्त व्यावहारिक सुझाव और ईश्वरीय सलाह पा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, दम्पति जो बाइबल सिद्धांतों को लागू करने के लिए सचमुच कोशिश करते हैं, उनकी आशा है कि वे परमेश्वर के बनाए हुए सन्निकट नए संसार में प्रेम में एक साथ बंध जाएँगे।