परमेश्वर की सुनने के लिए क्या आप तैयार हैं?
जब हम बाइबल को पढ़ते हैं, तब हम तुरन्त महसूस करते हैं कि प्रथम शताब्दी के लोगों की परिस्थिति अनेक प्रकार से आज हमारी परिस्थिति से मिलती जुलती है। अनैतिकता और बेईमानी बहुत अधिक थी, विशेष कर इस्राएल के दुराचारी पड़ोसियों के बीच, जिनके लिए अनैतिकता अकसर धर्म की एक भाग थी। ग़रीब लोगों के लिए जीवन अनिश्चित था, और राजनीतिक समस्याएँ मौजूद थीं। सामान्य युग वर्ष ६६ के आने तक, इस्राएल और रोम एक पूर्ण-विकसित युद्ध में लगे हुए थे। आज की तरह, उन दिनों में भी लोगों को सहायता की ज़रूरत थी।
धार्मिक रूप से, उन दिनों और हमारे समय के बीच की समानताएँ अनेक हैं। यहूदी धार्मिक नेता पाखण्डी थे। (मत्ती २३:१५; लूका २०:४६, ४७) ग़ैर-यहूदी संसार में, धार्मिक मनोवृत्ति आलोचना से अन्धविश्वास और कट्टर धार्मिक उत्साह की एक लम्बी सूची थी। (प्रेरितों के काम १४:८-१३; १९:२७, २८ से तुलना करें।) यहाँ तक कि अपेक्षाकृत नयी मसीही मंडली में भी सब कुछ ठीक नहीं था। शताब्दी के अन्त में, प्रेरित यूहन्ना ने चेतावनी दी: “बहुत से भरमाने वाले जगत में निकल आए हैं।” (२ यूहन्ना ७) हाँ, उस समय भी, धर्म के विषय पर बहुत सी नक़ली सलाह प्रस्तुत की गयी थी। फिर भी विश्वासयोग्य सहायता उपलब्ध थी।
क्या आप यीशु की सुनते?
उन दिनों में यीशु एक जन थे जिन्होंने सही सलाह दी। यह इतनी प्रभावशाली थी कि इसके असर के बारे हम ऐसा पढ़ते हैं: “भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई।” (मत्ती ७:२८) परन्तु उन भीड़ों में से इने-गिने लोगों ने ही सचमुच ध्यान से सुना कि वह क्या कह रहे थे। यीशु ने आश्चर्यजनक कार्य किए और परमेश्वरीय जीवन तथा आचरण का एक बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किया। फिर भी, तथाकथित अधिक-शिक्षित धार्मिक नेताओं ने भी, जो कुछ उन्होंने कहा उसके मूल्य को मानने से इन्कार किया। क्यों?
बहुत हद तक, यह पूर्वधारणा की बात थी। कुछ लोग यीशु से नफ़रत करते थे क्योंकि वह नासरत के थे। अन्य लोगों ने उन्हें इसलिए ठुकरा दिया कि वह उनके किसी विद्यालय में नहीं गए थे और शासक-वर्ग से उनके कोई सम्बन्ध नहीं थे। (यूहन्ना १:४६; ७:१२, १५, ४७, ४८) इसके अलावा, यीशु ने हमेशा वे बातें नहीं कहीं जो लोग सुनना चाहते थे। वह सिर्फ़ सत्य बोलते थे, और उदाहरण के लिए, फरीसी अकसर उनके शब्दों से नाराज़ हो जाते थे। (मत्ती १५:१२-१४) सचमुच, जब वह साढ़े तीन साल तक प्रचार कर चुके, यहूदी धार्मिक नेताओं ने उन्हें मरवा डाला। (लूका २३:२०-३५) उन्होंने क्या ही बड़े अवसर को खो दिया, चूँकि यीशु के पास “अनन्त जीवन की बातें” थीं!—यूहन्ना ६:६८.
यदि आप उस समय यरूशलेम में जीवित होते, क्या आप धार्मिक नेताओं और बाक़ी भीड़ का अनुसरण करते? या क्या आप इतने खुले मन के होते कि जो कुछ यीशु कह रहे थे, उसके तात्पर्य को समझ पाते? यदि ऐसा होता, तो आप एक उल्लेखनीय स्त्री की तरह होते जिससे यीशु अपनी यात्राओं के दौरान मिले।
एक जन जिसने सुना
वह इस स्त्री से तब मिले जब वह सामरिया से होकर जा रहे थे। वह एक कुँए के पास विश्राम करने को बैठ गए थे, और जब वह वहाँ थे, तब वह स्त्री पानी लेने के लिए आयी। हम उसका नाम नहीं जानते, परन्तु बाइबल लिखती है कि यीशु ने, अपनी थकान के बावजूद, उस से धर्म के बारे बात करने के लिए उस मौक़े का फ़ायदा उठाया।—यूहन्ना ४:५-१५.
अब, अनेक कारण थे जिस से यह स्त्री यीशु के प्रस्ताव को ठुकरा सकती थी। वह एक भिन्न धर्म की थी—सामरी उपासना करने का तरीक़ा यहूदियों से अलग था। और यहूदी सामरियों को नीचा समझते थे तथा उनके साथ संगति करने से इन्कार करते थे। और फिर, यहूदी पुरुष साधारणतः उन स्त्रियों से बातचीत नहीं करते थे जो उनके लिए अपरिचित थीं। (यूहन्ना ४:९, २६) इसके अलावा, वह सामरी स्त्री एक अनैतिक जीवन बिता रही थी, और वह शायद इस संभावना से क्रुध हो सकती थी कि उसकी आलोचना की जाएगी या उसके पापों का परदा फ़ाश होगा।—यूहन्ना ४:१८.
तथापि, उसकी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं थी। बल्कि, यीशु के युक्तिपूर्वक दिलचस्पी-जगानेवाले प्रस्ताव के उत्तर में उसने तर्कपूर्ण सवाल पूछे। जैसे जैसे बातचीत आगे बढ़ी, उसने यहूदियों और सामरियों के बीच उपस्थित विभेद का ज़िक्र करते हुए, एक मतभेद उत्पन्न कर सकनेवाली बात करने का साहस किया। यीशु ने दयालुता से किन्तु साफ़-साफ़ उत्तर दिया, स्त्री से यह कहकर: “तुम जिसे नहीं जानते, उसका भजन करते हो; और हम जिसे जानते हैं उसका भजन करते हैं।” (यूहन ४:१९-२२) परन्तु वह नाराज़ नहीं हुई। उसका खुला मन और अधिक सुनने को तैयार था।
अतः यीशु एक ज़रूरी घोषणा के साथ आगे बढ़े: “परन्तु वह समय आता है, बरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिए ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूँढ़ता है। परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।” (यूहन्ना ४:२३, २४) बाद में, इस खुले मनस्क स्त्री ने अपने पड़ोसियों को वे सारी बातें, जो उसने सीखी थीं, बड़ी उत्साह के साथ बताकर मूल्यांकन दिखाया। क्रम से, उन्होंने यीशु की सुनने के द्वारा और अधिक जानकारी प्राप्त की।—यूहन्ना ४:३९-४२.
इस से हम क्या सीख सकते हैं? यदि हम ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहाँ पक्की प्रजातीय, राष्ट्रीय या धार्मिक पूर्वधारणाएँ हैं, हमारी प्रतिक्रिया क्या होती है जब किसी दूसरी जाति, राष्ट्र या धर्म का कोई जन हमारे पास आता है? जब ऐसी बातों पर विचार-विमर्श होता है जिस से हम ग़लत साबित हो सकते हैं, तो क्या हम चुप रहते हैं? या क्या हम, उस सामरी स्त्री की तरह, कम से कम बातचीत तो करने के लिए तैयार होते हैं?
क्या आप पौलुस की सुनते?
और एक जन जिसने प्रथम शताब्दी के दौरान बढ़िया सलाह दी, वह था प्रेरित पौलुस। किसी समय पौलुस का भी मन बन्द था। उसने स्वीकार किया: “मैं तो पहले निन्दा करनेवाला, और सतानेवाला, और अन्धेर करनेवाला था; तौभी मुझ पर दया हुई, क्योंकि मैं ने अविश्वास की दशा में बिना समझे बूझे, ये काम किए थे।” (१ तीमुथियुस १:१३) फिर भी, उसने यीशु मसीह के बारे सत्य को ग्रहण किया और अपनी पूर्वधारणाओं को मन से निकाल दिए। उसका उदाहरण दिखाता है कि बाइबल की सच्चाई हृदय के मज़बूत ‘जड़ जमायी हुई बातों को उलट देने’ में सहायक है, यदि ये बातें हमारे कल्याण के लिए हानिकारक हैं।—२ कुरिन्थियों १०:४, न्यू.व.
जैसे ही वह मसीही बन गया, पौलुस बड़े साहस के साथ उस सुसमाचार को फैलाने गया, जो उसने सीखा था। और जैसी आशा की जा सकती थी, उसने उसी तरह की बन्द-मनस्क अवस्था पायी जैसा कि एक समय स्वयं उसी की थी—परन्तु हर किसी के मामले में नहीं। बिरीया, उत्तरी यूनान में, उसे कुछ नम्र हृदय वाले लोग मिले जो किस तरह सलाह को सुनना चाहिए इस में बड़े अच्छे उदाहरण थे। इन लोगों ने पौलुस के शब्दों में सच्चाई की आवाज़ पहचानी। अतः, “उन्होंने बड़ी लालसा से वचन ग्रहण किया।” परन्तु वे खुले मनस्क थे, धोखा खानेवाले नहीं। उन्होंने ‘प्रतिदिन पवित्रशास्त्रों में ढूँढ़ा कि ये बातें यो ही हैं कि नहीं।’ (प्रेरितों के काम १७:११) उन्होंने जो कुछ सुना वह उन्हें अच्छा लगा, यद्यपि उन्होंने उसे पूर्ण रूप से स्वीकार करने से पहले उसकी प्रामाणिकता को बाइबल से जाँचा।
“सब बातों को परखो”
हमारे दिनों में, यहोवा के गवाह राज्य के सुसमाचार को अपने दूसरे धर्म वाले पड़ोसियों को देने की कोशिश में बहुत समय बिताते हैं। गवाह कैसी प्रतिक्रिया पाते हैं? बहुत से मैत्रीपूर्ण व्यक्ति उनका स्वागत करने के लिए खुश हैं। परन्तु अनेक इन्कार करते हैं, और कुछ तो क्रोधित भी हो जाते हैं कि गवाह उनसे भेंट करने जाते हैं।
यह दुःख की बात है, क्योंकि यहोवा के गवाह जिस बारे में बात करना चाहते हैं, उसे बाइबल में “सुसमाचार” कहा जाता है। (मत्ती २४:१४) इसके अलावा, वे प्रेरित पौलुस की मनोवृत्ति प्रोत्साहित करते हैं, जिसने कहा: “सब बातों को परखो; जो अच्छा है उसे पकड़े रहो।” (१ थिस्सलुनीकियों ५:२१, न्यू.व.) अगर किसी के दृढ़ विचार हैं भी, तो निश्चय ही, बिरीया के लोगों और सामरी स्त्री की तरह, उसे इतना खुले मन का होना चाहिए कि दूसरों के साथ परमेश्वर के बारे बात कर सके।
क्यों खुले मन के हों?
खुशी की बात है कि प्रति वर्ष सैंकड़ों हज़ारों लोग ऐसा ही कर रहे हैं। बहुत से लोग बाइबल में पायी जानेवाली बुद्धि को पहचानना सीख जाते हैं, और परिणाम यह है कि उनके जीवन में स्थायी परिवर्तन आ जाते हैं। कुछ लोग पहले जॅनेट की तरह थे, एक ऐसी युवा स्त्री जिसका जीवन मदिरा और नशीली दवाइयों के दुरुपयोग का एक लम्बा सिलसिला था और जो अन्त में आत्म-हत्या करने की कोशिश तक पहुँच गयी थी। आज, जॅनेट एक खुश मसीही व्यक्ति है। बाइबल के उसके अध्ययन ने उसे पौलुस की सलाह पर चलने की शक्ति पाने में सहायता की: “आओ, हम अपने आप को शरीर और आत्मा की सब मलिनता से शुद्ध करें।”—२ कुरिन्थियों ७:१.
वरनॉन एक शराबी था, और उसका विवाह टूटने के ख़तरे में था। परन्तु बाइबल की सलाह पर चलने से उसे इस बुरी आदत पर विजय प्राप्त करने और अपनी पत्नी के साथ मेल-मिलाप करने में सहायता हुई। (१ कुरिन्थियों ६:११) डेब्रा में पक्की प्रजातीय पूर्वधारणाएँ थीं। परन्तु एक बाइबल अध्ययन और मसीही लोगों के साथ संगति करने से उसे अपने विचारों को ठीक करने में सहायता हुई। (प्रेरितों के काम १०:३४, ३५) और उन परिवर्तनों पर कौन विश्वास करता जो नेदरलैंड की एक युवा वेश्या के जीवन में आनेवाले थे जब, एक दिन, उसने यहोवा के गवाहों के साथ बाइबल अध्ययन करना स्वीकार किया? जल्द ही, वह एक बपतिस्मा प्राप्त मसीही बन गयी थी जो एक स्वच्छ जीवन जी रही थी और उत्तरदायित्व के साथ अपने बच्चों की देखभाल कर रही थी।
ऐसे अनुभव बार-बार घटित होते हैं जैसे जैसे लोग बाइबल में कही बातों को सुनते हैं। उनके जीवन ऐसी रीतियों में सुधर गए हैं जैसा कि उनमें से बहुतों ने कभी सोचा भी न था कि संभव है। अधिक महत्त्वपूर्ण तो यह है कि वे परमेश्वर के साथ एक सम्बन्ध बना पाते हैं, जिससे कि वे उनको निष्कपटता से, “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है,” यूँ प्रार्थना कर सकते हैं। (मत्ती ६:९) और वे भविष्य के लिए एक निश्चित, अटूट आशा पाते हैं जब वे यीशु के शब्दों की सच्चाई अनुभव करते हैं: “और अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें।”—यूहन्ना १७:३.
यहोवा के गवाह अपनी सेवकाई करते समय और अपने पड़ोसियों से भेंट करते समय इस प्रकार की जानकारी पर विचार-विमर्श करना चाहते हैं। संभवतः, वे जल्द ही आप से भेंट करेंगे। क्या आप इतने खुले मन के होंगे कि उनकी बातें सुन लें?
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उस सामरी स्त्री ने यीशु की सुनने के लिए किसी भी पूर्वधारणा को एक रोक बनने नहीं दिया। क्या आप उतने ही खुले-मन के हैं?