अपनी ज़बान से दूसरों की भलाई करें
“मेरे मुँह के वचन और मेरे हृदय का ध्यान तेरे सम्मुख ग्रहण योग्य हों, हे यहोवा परमेश्वर!”—भज. 19:14.
1, 2. बाइबल में हमारी बातचीत करने की काबिलीयत की तुलना आग से क्यों की गयी है?
सन् 1871 के अक्टूबर में, अमरीका के विसकॉन्सन राज्य के जंगलों में एक बार आग लग गयी। देखते-ही-देखते इस आग ने भयंकर रूप ले लिया। आसमान छूती आग की लपटों ने 1,200 से ज़्यादा लोगों की जान ले ली। करीब 2 अरब पेड़ जलकर राख हो गए। अमरीका में इससे भयंकर आग कभी नहीं लगी और न ही कभी आग से इतने सारे लोग मारे गए। ऐसा माना जाता है कि जंगल से गुज़रती रेलगाड़ियों की चिंगारियों से यह भयानक आग लगी थी। कितना सच लिखा है याकूब 3:5 में, “देखो! पूरे जंगल में आग लगाने के लिए बस एक छोटी-सी चिंगारी काफी होती है।” बाइबल के लेखक याकूब ने ऐसा क्यों कहा?
2 इसे समझाने के लिए याकूब कहता है, “जीभ भी एक आग है।” (याकू. 3:6) “जीभ” का मतलब है हमारी बातचीत करने की काबिलीयत। और जैसे आग से बहुत नुकसान होता है, वैसे ही हम जो कहते हैं उससे भी बहुत नुकसान हो सकता है। हमारे शब्दों का लोगों पर गहरा असर हो सकता है। बाइबल तो यह भी कहती है कि हम जो कहते हैं, उससे या तो लोगों को ज़िंदगी मिल सकती है या मौत। (नीति. 18:21) लेकिन क्या इसका मतलब हमें कभी कुछ बोलना ही नहीं चाहिए, इस डर से कि कुछ गलत न कह दें? नहीं, ऐसा नहीं है। हम जल जाने के डर से आग का इस्तेमाल करना बंद नहीं कर देते। इसके बजाय, हम इसका सावधानी से इस्तेमाल करते हैं, जैसे खाना बनाने के लिए, खुद को गरम रखने के लिए और रोशनी पाने के लिए। उसी तरह, अगर हम ध्यान दें कि हम कैसे बात करते हैं, तो हम अपनी इस काबिलीयत से यहोवा की महिमा कर सकते हैं और दूसरों को फायदा पहुँचा सकते हैं।—भज. 19:14.
3. हमारी बोली से दूसरों का हौसला बढ़े, इसके लिए हम कौन-सी तीन बातों का ध्यान रख सकते हैं?
3 यहोवा ने हमें यह काबिलीयत दी है कि हम दूसरों को अपनी सोच और भावनाएँ बता सकते हैं, चाहे तो उनसे बात करके या अपने हाथों से इशारा करके। इस काबिलीयत से हम कैसे दूसरों की हिम्मत बढ़ा सकते हैं? (याकूब 3:9, 10 पढ़िए।) हमें पता होना चाहिए कि हमें कब बोलना है, क्या बोलना है और कैसे बोलना है।
हमें कब बोलना चाहिए?
4. हमें कब चुप रहना चाहिए?
4 कभी-कभी चुप रहना अच्छा होता है। बाइबल कहती है कि ‘चुप रहने का भी समय’ है। (सभो. 3:7) जैसे, जब दूसरे लोग बात कर रहे होते हैं, तो हम चुप रहते हैं। इससे हम उन्हें आदर दिखा रहे होते हैं। (अय्यू. 6:24) साथ ही, हम निजी बातों के बारे में बात नहीं करते और न ही उन बातों के बारे में जो दूसरों को पता नहीं होनी चाहिए। (नीति. 20:19) और जब कोई हमें गुस्सा दिलाता है, तो समझदारी इसी में होगी कि हम शांत रहें और कुछ न कहें।—भज. 4:4.
5. परमेश्वर से मिली बोलने की काबिलीयत के लिए हम कैसे अपनी कदरदानी दिखा सकते हैं?
5 बाइबल यह भी कहती है, “बोलने का भी समय है।” (सभो. 3:7) सोचिए, अगर आपके दोस्त ने आपको एक सुंदर-सा तोहफा दिया है। आप क्या करेंगे? क्या आप उसे छुपाकर रखेंगे? ज़ाहिर-सी बात है आप उसका अच्छे-से-अच्छा इस्तेमाल करके उसके लिए कदरदानी दिखाएँगे। ठीक वैसे ही, अगर हम यहोवा से मिली बोलने की काबिलीयत का अच्छी तरह इस्तेमाल करें, तो हम दिखा रहे होंगे कि इस तोहफे के लिए हम यहोवा के कितने एहसानमंद हैं! इस तोहफे की मदद से हम यहोवा की महिमा कर सकते हैं, दूसरों का हौसला बढ़ा सकते हैं, अपनी भावनाएँ ज़ाहिर कर सकते हैं और दूसरों को बता सकते हैं कि हमें क्या चाहिए। (भज. 51:15) लेकिन हम यह कैसे तय कर सकते हैं कि हमें कब बोलना है?
6. यह क्यों ज़रूरी है कि हम सही समय पर बोलें?
6 नीतिवचन 25:11 में सही समय पर बोलने की अहमियत के बारे में बताया गया है। वहाँ लिखा है, “जैसे चाँदी की टोकरियों में सोने के सेब हों, वैसा ही ठीक समय पर कहा हुआ वचन होता है।” सुनहरे सेब बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन ये सेब तब और भी ज़्यादा सुंदर दिखते हैं जब उन्हें चाँदी की टोकरियों में रखा जाता है। उसी तरह, किसी से कुछ कहने के लिए हमारे पास भी शायद कुछ अच्छी बातें हों। लेकिन अगर हम उसे सही समय पर बोलें, तो हम उस व्यक्ति की और भी ज़्यादा मदद कर पाएँगे। यह हम कैसे कर सकते हैं?
7, 8. जापान के हमारे भाई किस तरह यीशु की मिसाल पर चले?
7 अगर हम गलत समय पर बोलें, तो लोगों को शायद हमारी बात समझ में न आए या हो सकता है वे हमारी बात न मानें। (नीतिवचन 15:23 पढ़िए।) उदाहरण के लिए, मार्च 2011 में आए एक भूकंप और सुनामी से पूर्वी जापान के कई शहर तबाह हो गए। पंद्रह हज़ार से भी ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी। हालाँकि कई यहोवा के साक्षियों ने अपने परिवार और दोस्तों को खोया था, लेकिन वे बाइबल से उन लोगों की मदद करना चाहते थे जो उनके जैसे हालात में थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि उस देश में बहुत से लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं और बाइबल के बारे में बहुत कम जानते हैं। इसलिए भाइयों ने उस समय लोगों को पुनरुत्थान के बारे में बताने के बजाय उन्हें दिलासा दिया और यह भी समझाया कि अच्छे लोगों के साथ बुरा क्यों होता है।
8 वे भाई यीशु की मिसाल पर चले। यीशु जानता था कि उसे कब चुप रहना है। लेकिन वह यह भी जानता था कि उसे कब बोलना है। (यूह. 18:33-37; 19:8-11) उसने अपने चेलों को कुछ बातें सिखाने के लिए सही समय का इंतज़ार किया। (यूह. 16:12) जापान के भाइयों ने भी समझा कि लोगों को पुनरुत्थान के बारे में बताना कब सही रहेगा। क्या मरे हुओं को दोबारा जीवन मिलेगा? ट्रैक्ट उन्होंने लोगों को सुनामी आने के डेढ़ साल बाद देना शुरू किया। कई लोगों ने वह ट्रैक्ट पढ़ा और उससे उन्हें दिलासा मिला। हमें भी अपने इलाके के लोगों की संस्कृति पर गौर करना चाहिए और यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वे क्या मानते हैं। इससे हम सही वक्त पर उनसे बात कर पाएँगे।
9. ऐसे और कौन-से हालात होते हैं, जब हमें बोलने के लिए सही वक्त का इंतज़ार करना चाहिए?
9 ऐसे और भी हालात होते हैं, जब हमें बोलने के लिए सही वक्त का इंतज़ार करना चाहिए। हो सकता है, कोई कुछ ऐसा कह दे जिससे हमें बुरा लगे। उसे उसी वक्त जवाब देने या कुछ बुरा-भला कहने के बजाय, समझदारी इसी में होगी कि हम थोड़ा रुककर इस बारे में सोचें, ‘उसने किस इरादे से यह बात कही? क्या इस बारे में वाकई उससे बात करने की ज़रूरत है?’ शायद उस वक्त सबसे अच्छा यही होगा कि हम कुछ भी न कहें। लेकिन अगर उससे बात करने की हमारे पास कोई ठोस वजह है, तो मामले के ठंडा होने तक हमें इंतज़ार करना चाहिए। (नीतिवचन 15:28 पढ़िए।) उसी तरह, जब हम अपने परिवार के अविश्वासी सदस्य से सच्चाई के बारे में बात करते हैं, तो हमें समझ से काम लेना चाहिए। हालाँकि हम चाहते हैं कि वे यहोवा को जानें, लेकिन इस मामले में हमें सब्र दिखाना चाहिए। हमें ध्यान से सोचना चाहिए कि हम क्या कहेंगे और उस वक्त का इंतज़ार करना चाहिए जब वे सुनने के लिए तैयार हों।
हमें क्या बोलना चाहिए?
10. (क) हमें क्यों सोच-समझकर बात करनी चाहिए? (ख) हमें किस तरह बात नहीं करनी चाहिए?
10 हमारी कही कोई बात या तो दूसरों को चोट पहुँचा सकती है या उनके लिए मरहम का काम कर सकती है। (नीतिवचन 12:18 पढ़िए।) शैतान की इस दुनिया में ज़्यादातर लोग ‘कड़वे वचन’ बोलते हैं, जो “तलवार” या ‘तीर’ की तरह चुभते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि उनकी बातों से दूसरों को चोट पहुँचे या वे निराश हो जाएँ। (भज. 64:3) कई लोग फिल्मों और टी.वी. कार्यक्रमों से इस तरह बात करना सीखते हैं। लेकिन मसीही कभी-भी रुखाई से या कड़े शब्दों में बात नहीं करते, मज़ाक में भी नहीं। मज़ाक करना अच्छा है और इससे हमारी कही बात और दिलचस्प बन जाती है। लेकिन हमें कभी-भी ताने नहीं कसने चाहिए, यानी दूसरों को हँसाने के इरादे से किसी से कुछ ऐसा नहीं कहना चाहिए जिससे उसे शर्मिंदा होना पड़े और न ही हमें किसी को नीचा दिखाना चाहिए। बाइबल मसीहियों को आज्ञा देती है कि उन्हें “गाली-गलौज” नहीं करनी चाहिए। बाइबल में यह भी कहा गया है कि “कोई गंदी बात तुम्हारे मुँह से न निकले, मगर सिर्फ ऐसी बात निकले जो ज़रूरत के हिसाब से हिम्मत बँधाने के लिए अच्छी हो, ताकि उससे सुननेवालों को फायदा पहुँचे।”—इफि. 4:29, 31.
11. किसी से बात करते वक्त सही शब्द चुनने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
11 यीशु ने सिखाया था कि “जो दिल में भरा है वही मुँह पर आता है।” (मत्ती 12:34) इसका मतलब है कि हम जो कहते हैं, उससे पता चलता है कि हम दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं। इसलिए अगर हमें लोगों से प्यार होगा और हमें उनकी परवाह होगी, तो हम उनसे बात करते वक्त सही शब्द चुनेंगे। हमारी बोली अच्छी और हौसला बढ़ानेवाली होगी।
12. सही शब्द चुनने में और कौन-सी बात हमारी मदद कर सकती है?
12 बात करते वक्त सही शब्द चुनने के लिए हमें पहले सोचना पड़ता है। हालाँकि राजा सुलैमान बहुत बुद्धिमान था, फिर भी वह “ध्यान लगाकर और पूछपाछ करके” लिखता था ताकि वह जो लिख रहा है, वह सही हो और पढ़ने में अच्छा लगे। (सभो. 12:9, 10) हमें क्या बोलना चाहिए, यह जानने में क्या बात हमारी मदद करेगी? हम बाइबल में और हमारी किताबों-पत्रिकाओं में देख सकते हैं कि हम अपनी बात कैसे नए-नए तरीकों से कह सकते हैं। हमें जो शब्द समझ में नहीं आते, उनके मतलब सीख सकते हैं। हम यीशु की मिसाल का भी अध्ययन कर सकते हैं। उससे हम सीखेंगे कि हम दूसरों की मदद करने के लिए किस तरह बात कर सकते हैं। यीशु अच्छी तरह जानता था कि उसे क्या कहना है क्योंकि यहोवा ने उसे सिखाया था कि वह “थके हुए को अपने वचन के द्वारा संभालना” जाने। (यशा. 50:4) अगर हम बोलने से पहले सोचें, तो हमें सही शब्द चुनने में मदद मिलेगी। (याकू. 1:19) हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘अगर मैं ऐसा कहूँ तो क्या सामनेवाला व्यक्ति यह समझ पाएगा कि मैं क्या कहना चाहता हूँ? उसे मेरी बात सुनकर कैसा लगेगा?’
13. हमें क्यों इस तरह बात करनी चाहिए जिससे दूसरों को हमारी बात साफ समझ में आए?
13 इसराएल में तुरही बजाकर लोगों को कुछ कदम उठाने का इशारा दिया जाता था। जब एक खास तरीके से तुरही बजायी जाती थी, तो उसका मतलब होता था कि लोगों को इकट्ठा होना है। वहीं दूसरी तरीके से तुरही बजाने का मतलब होता था कि सैनिकों को हमला बोलना है। ज़रा सोचिए, अगर तुरही की आवाज़ साफ न होती, तो सेना का क्या होता! बाइबल में तुरही की साफ आवाज़ की तुलना उन शब्दों से की गयी है, जो समझने में आसान होते हैं। अगर हम अपनी बात साफ शब्दों में न समझाएँ, तो शायद लोग उसे समझ न पाएँ या वे शायद कुछ ऐसा मान बैठें जो सच नहीं है। हालाँकि हम अपनी बात साफ-साफ समझाना चाहते हैं, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी बात रुखाई से न कहें और न ही ऐसे कहें जिससे सामनेवाले का अनादर हो।—1 कुरिंथियों 14:8, 9 पढ़िए।
14. कौन-से उदाहरण से पता चलता है कि यीशु ने इस तरह बात की जिसे समझना आसान था?
14 यीशु ऐसे शब्द चुनता था जो समझने में आसान होते थे। मत्ती अध्याय 5 से 7 इस बात के सबसे उम्दा उदाहरण हैं। उसने अपने भाषण में मुश्किल या फिज़ूल शब्द नहीं कहे क्योंकि वह लोगों पर अपनी छाप नहीं छोड़ना चाहता था। न ही उसने ऐसी बातें कीं, जिनसे दूसरों को ठेस पहुँचती। यीशु ने लोगों को कई ज़रूरी बातें सिखायीं जिनका गहरा मतलब होता था। लेकिन उसने ऐसी बातें इस तरह कहीं, जो आसानी से समझ में आएँ। जैसे, यीशु अपने चेलों को यकीन दिलाना चाहता था कि उन्हें हर दिन के खाने की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए यह समझाने के लिए उसने बताया कि यहोवा पंछियों को हमेशा खिलाता है। फिर उसने उनसे पूछा, “क्या तुम्हारा मोल उनसे बढ़कर नहीं?” (मत्ती 6:26) इन आसान शब्दों से यीशु ने उन्हें एक ज़रूरी सबक समझने में मदद दी और उनका हौसला बढ़ाया।
हमें कैसे बोलना चाहिए?
15. हमें क्यों लोगों से प्यार से बात करनी चाहिए?
15 जितना यह मायने रखता है कि हम दूसरों से क्या बात करते हैं, उतना ही यह मायने रखता है कि हम कैसे बात करते हैं। लोग यीशु की बातें सुनना पसंद करते थे क्योंकि वह उनसे बहुत ही प्यार से और नम्रता से बात करता था या ‘दिल जीतनेवाली बातें’ करता था। (लूका 4:22) उसी तरह, जब हम दूसरों से नम्रता से बात करते हैं, तो लोग हमारी बात सुनना और भी पसंद करेंगे और हमारी बात मान भी लेंगे। (नीति. 25:15) अगर हमारे दिल में दूसरों के लिए इज़्ज़त होगी और हमें उनकी भावनाओं का खयाल होगा, तो हम उनसे प्यार से बात करेंगे। यीशु ने भी यही किया। जब उसने देखा कि कैसे एक भीड़ उसकी बातें सुनने के लिए जद्दोजेहद कर रही है, तो वह उन्हें देखकर तड़प उठा और “उन्हें बहुत-सी बातें सिखाने लगा।” (मर. 6:34) और जब लोगों ने उसका अपमान किया, तब भी यीशु ने बदले में उनकी बेइज़्ज़ती नहीं की।—1 पत. 2:23.
16, 17. (क) जब हम अपने परिवारवालों से और दोस्तों से बात करते हैं, तब हम कैसे यीशु की मिसाल पर चल सकते हैं? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) (ख) उदाहरण देकर समझाइए कि नम्रता से बात करने के क्या फायदे हो सकते हैं।
16 हालाँकि हम अपने परिवारवालों से और दोस्तों से प्यार करते हैं, पर हम शायद उनसे रुखाई से बात करें क्योंकि हम उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। हम शायद सोचें कि उनसे बात करते वक्त हमें ज़्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन जब यीशु अपने दोस्तों से बात करता था, तब उसने कभी-भी उनसे रुखाई से बात नहीं की। जब उसके कुछ चेलों ने बहस की कि उनमें सबसे बड़ा कौन है, तो यीशु ने उन्हें बड़े प्यार से सुधारा। उसने एक छोटे बच्चे की मिसाल देकर उन्हें समझाया और उन्हें अपनी सोच सुधारने में मदद दी। (मर. 9:33-37) प्राचीन भी यीशु की मिसाल पर चलकर दूसरों को प्यार से सलाह दे सकते हैं।—गला. 6:1.
17 जब कोई हमसे ऐसी बात करता है जिससे हमें ठेस पहुँचती है, तब अगर हम उससे प्यार से बात करेंगे, तो इसके अच्छे नतीजे निकल सकते हैं। (नीति. 15:1) मिसाल के लिए, एक बहन को अपने बेटे की अकेले ही परवरिश करनी पड़ती थी। लेकिन उसका बेटा बुरे काम करता था और यहोवा की सेवा करने का दिखावा करता था। दूसरी बहन को उस लड़के की माँ पर तरस आया और उसने उसकी माँ से कहा, “अफसोस आप अपने बच्चे को सिखाने में कामयाब नहीं हो पायीं।” इस पर उसकी माँ थोड़ा सोचकर बोली, “हाँ यह तो है कि सबकुछ ठीक नहीं चल रहा, पर उसे सिखाने का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। क्यों न हम हर-मगिदोन तक इंतज़ार करें और उसके बाद बात करें। तभी हम जान पाएँगे कि सब कैसा है।” इस माँ के शांत रहने और नम्रता से पेश आने की वजह से उनकी दोस्ती बनी रही। उनकी यह बातचीत उस लड़के ने सुनी। उसे एहसास हुआ कि उसकी माँ को अब भी भरोसा है कि वह बदल सकता है। इसलिए उसने बुरे दोस्तों की संगति छोड़ दी। जल्द ही, उसने बपतिस्मा लिया और बाद में बेथेल में सेवा की। हम चाहे अपने भाई-बहनों से बात कर रहे हों या अपने परिवारवालों से या फिर उनसे जिन्हें हम नहीं जानते, फिर भी हमारे “बोल हमेशा मन को भानेवाले, सलोने” होने चाहिए।—कुलु. 4:6.
18. हम यीशु की मिसाल पर चलकर कैसे सही तरह से बात कर सकते हैं?
18 हम क्या सोचते हैं और महसूस करते हैं, यह बताने की काबिलीयत सचमुच में यहोवा की तरफ से मिला एक खूबसूरत तोहफा है। अगर हम यीशु की मिसाल पर चलेंगे, तो हम सही वक्त पर बोलेंगे, हम इस बात का खयाल रखेंगे कि हम क्या कहते हैं और हम हमेशा प्यार से बात करेंगे। इसलिए आइए अपनी बातों से दूसरों का हौसला बढ़ाएँ और अपनी बातों से यहोवा को भी खुश करें।