विभाजित संसार में मसीही पहुनाई
“इसलिये ऐसों का स्वागत करना चाहिए, जिस से हम भी सत्य के पक्ष में उन के सहकर्मी हों।”—३ यूहन्ना ८.
१. सृष्टिकर्ता ने मानवजाति को कौन-से सबसे वांछनीय उपहार दिए हैं?
“सूर्य के नीचे मनुष्य के लिये खाने-पीने और आनन्द करने को छोड़ और कुछ भी अच्छा नहीं, क्योंकि यही उसके जीवन भर जो परमेश्वर उसके लिये धरती पर ठहराए, उसके परिश्रम में उसके संग बना रहेगा।” (सभोपदेशक ८:१५) इन शब्दों के साथ प्राचीन इब्रानी उपदेशक हमें बताता है कि यहोवा परमेश्वर न केवल यह चाहता है कि उसकी मानव सृष्टि आनन्दित और सुखी रहे परन्तु उनके इस प्रकार रहने के लिए साधन भी प्रदान करता है। पूरे मानव इतिहास के दौरान हर जगह के लोगों के बीच एक सामान्य इच्छा यह दिखायी पड़ती है कि वे आनन्द मनाएँ और सुखद समय बिताएँ।
२. (क) मानवजाति के लिए यहोवा का जो उद्देश्य था उसका उन्होंने कैसे दुरुपयोग किया है? (ख) परिणाम क्या है?
२ आज हम एक सुखवादी समाज में रहते हैं जिसमें लोग सुख-विलास और सुखद समय की खोज में व्यस्त हैं। अधिकांश लोग “अपस्वार्थी, . . . परमेश्वर के नहीं बरन सुखविलास ही के चाहनेवाले” बन गए हैं, जैसा बाइबल ने पूर्वबताया। (२ तीमुथियुस ३:१-४) निःसंदेह, यह यहोवा परमेश्वर का जो उद्देश्य था उसकी घोर विकृति है। जब सुखद समय की खोज अपने आप में एक लक्ष्य बन जाता है, या जब आत्म-संतोष एकमात्र ध्येय बन जाता है, तब कोई सच्ची संतुष्टि नहीं होती, और “सब व्यर्थ और मानो वायु को पकड़ना” हो जाता है। (सभोपदेशक १:१४; २:११) इसके फलस्वरूप संसार अकेले और निराश लोगों से भरा हुआ है, जो क्रमशः, समाज में अनेक समस्याओं का कारण बनता है। (नीतिवचन १८:१) लोग एक दूसरे पर संदेह करते हैं और जातीय, नृजातीय, सामाजिक, और आर्थिक रूप से विभाजित हो जाते हैं।
३. हम सच्चा आनन्द और संतुष्टि कैसे पा सकते हैं?
३ स्थिति कितनी भिन्न होती यदि लोग दूसरों के साथ व्यवहार करने के यहोवा के तरीक़े का अनुकरण करते—कृपालु, उदार, पहुनाई करनेवाले होते! उसने स्पष्ट कर दिया कि स्वयं अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करने की कोशिश करने में सच्चे सुख का रहस्य नहीं है। इसके बजाय, कुंजी यह है: “लेने से देना धन्य है।” (प्रेरितों २०:३५) सच्चा आनन्द और संतुष्टि पाने के लिए, हमें उन बाधाओं और विभाजनों को पार करना है जो हमें रोक के रख सकते हैं। और हमें उनकी ओर बढ़ना है जो हमारे साथ-साथ यहोवा की सेवा कर रहे हैं। इस सलाह को मानना अत्यावश्यक है: “इसलिये ऐसों का स्वागत करना चाहिए, जिस से हम भी सत्य के पक्ष में उन के सहकर्मी हों।” (३ यूहन्ना ८) जिस हद तक हमारी परिस्थितियाँ अनुमति देती हैं, योग्य जनों की पहुनाई करना दो तरीक़ों से फल देता है—इससे देनेवाले और प्राप्त करनेवाले दोनों को लाभ होता है। तो, उन योग्य जनों में कौन हैं जिनका हमें “स्वागत करना चाहिए”?
“अनाथों और विधवाओं . . . की सुधि लें”
४. कुछ यहोवा के लोगों के बीच भी पारिवारिक ढाँचे में कैसा बदलाव देखने में आता है?
४ स्थिर परिवार और सुखी विवाह आज मुश्किल से मिलते हैं। संसार-भर में बढ़ती तलाक़ दर और अविवाहित माँओं की बढ़ती संख्या से पारंपरिक परिवार में बड़ा बदलाव आ गया है। फलस्वरूप, अनेक ऐसे लोग जो हाल ही के सालों में यहोवा के साक्षी बने हैं टूटे परिवारों से हैं। उनका अपने अपने विवाह-साथी से या तो तलाक़ या अलगाव हुआ है, या वे एक-जनक परिवारों में रहते हैं। इसके साथ-साथ, जैसा यीशु ने पूर्वबताया, जो सत्य उसने सिखाया उसके परिणामस्वरूप अनेक परिवारों में फूट पड़ी है।—मत्ती १०:३४-३७; लूका १२:५१-५३.
५. यीशु ने क्या कहा जो विभाजित परिवारों के लोगों के लिए सांत्वना का स्रोत हो सकता है?
५ नए लोगों को सत्य के लिए एक दृढ़ स्थिति लेते हुए देखने में हमें हार्दिक ख़ुशी होती है, और प्रायः हम उन्हें यीशु की प्रोत्साहक प्रतिज्ञा से सांत्वना देते हैं: “मैं तुम से सच सच कहता हूं, ऐसा कोई नहीं जिसने मेरे और सुसमाचार के कारण घर या भाइयों या बहिनों, या माता या पिता या बच्चों या खेतों को छोड़ दिया हो, और वह वर्तमान समय में घरों, और भाइयों और बहिनों, और माताओं, और बच्चों और खेतों को सौ गुना अधिक न पाए, पर सताव के साथ, तथा आने वाले युग में अनन्त जीवन।”—मरकुस १०:२९, ३०, NHT.
६. हम अपने बीच “अनाथों और विधवाओं” के लिए ‘भाई, बहिन, माताएँ, और बच्चे’ कैसे बन सकते हैं?
६ लेकिन, ये ‘भाई और बहिन और माताएँ और बच्चे’ कौन हैं? राज्यगृह में अपने आपको भाई-बहन कहनेवाले ढेर सारे लोगों, अकसर सौ या उससे अधिक लोगों को देखना ही एक व्यक्ति को स्वतः यह भाव नहीं देता कि ये उसके भाई, बहन, माताएँ, और बच्चे हैं। इस मुद्दे पर विचार कीजिए: शिष्य याकूब हमें याद दिलाता है कि यहोवा को हमारी उपासना स्वीकार्य होने के लिए, हमें चाहिए कि “अनाथों और विधवाओं के क्लेश में उन की सुधि लें, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखें।” (याकूब १:२७) इसका अर्थ है कि हमें आर्थिक घमंड और वर्ग श्रेष्ठता की सांसारिक मनोवृत्ति दिखाकर ऐसे “अनाथों और विधवाओं” के प्रति अपनी करुणा का द्वार बन्द नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, हमें उनके साथ संगति करने और उनकी पहुनाई करने में पहल करनी चाहिए।
७. (क) “अनाथों और विधवाओं” की पहुनाई करने का वास्तविक उद्देश्य क्या है? (ख) मसीही पहुनाई करने में शायद और कौन समर्थ हों?
७ “अनाथों और विधवाओं” की पहुनाई करने में हमेशा ही यह सम्मिलित नहीं होता कि भौतिक रूप से शायद उनको जो घटी है उसकी पूर्ति करें। ज़रूरी नहीं है कि एक-जनक परिवार या धार्मिक रूप से विभाजित घराने आर्थिक रूप से तंगहाल हों। लेकिन, हितकर संगति, पारिवारिक वातावरण, अलग-अलग उम्र के लोगों के साथ संगति, और अच्छी-अच्छी आध्यात्मिक बातों को बाँटना—ये जीवन के वे पहलू हैं जो बहुमूल्य हैं। अतः, यह याद रखते हुए कि अवसर की भव्यता नहीं, बल्कि प्रेम और एकता की आत्मा महत्त्व रखती है, यह कितना उत्तम है कि, कभी-कभी ‘अनाथ और विधवाएँ’ भी संगी मसीहियों की पहुनाई करने में भाग ले सकती हैं!—१ राजा १७:८-१६ से तुलना कीजिए।
क्या हमारे बीच परदेशी हैं?
८. यहोवा के साक्षियों की अनेक कलीसियाओं में कैसा बदलाव देखने में आता है?
८ हम एक ऐसे समय में जीते हैं जब बड़ी संख्या में लोग स्थानांतरण करते हैं। “संसार-भर में दस करोड़ से अधिक लोग उन देशों में रह रहे हैं जहाँ के वे नागरिक नहीं हैं, और दो करोड़ तीस लाख अपने ही देशों में विस्थापित हैं,” वर्ल्ड प्रॆस रिव्यू (अंग्रेज़ी) कहती है। इसका एक सीधा परिणाम यह हुआ है कि अनेक क्षेत्रों में, ख़ासकर ज़्यादा बड़े शहरों में, यहोवा के लोगों की कलीसियाओं में जहाँ कभी ज़्यादातर एक ही जाति या राष्ट्रीयता के लोग होते थे अब संसार के भिन्न भागों के लोग हैं। संभवतः यह वहाँ भी सच हो जहाँ आप रहते हैं। लेकिन, संसार जिन्हें शायद “पराया” और “परदेशी” कहे, जिनकी भाषा, रिवाज़, और जीवन-शैली शायद हम से भिन्न हो, हमें उनको किस दृष्टि से देखना चाहिए?
९. मसीही कलीसिया में “परायों” और “परदेशियों” के आने के बारे में हमारे दृष्टिकोण के सम्बन्ध में कौन-से गंभीर फन्दे हमें फँसा सकते हैं?
९ सरल शब्दों में कहें तो हमें कोई अज्ञात-जन-द्वेष प्रवृत्ति दिखाकर यह महसूस नहीं करना चाहिए कि उनकी तुलना में जो एक अजनबी या तथाकथित विधर्मी देश से आए हैं हम किसी तरह से सत्य जानने के विशेषाधिकार के ज़्यादा योग्य हैं; न ही हमें यह महसूस करना चाहिए कि मानो ये नवागंतुक राज्यगृह या अन्य भवनों के प्रयोग में हक़ जमा रहे हैं। कुछ प्रथम-शताब्दी यहूदी मसीही ऐसे विचार रखे हुए थे। प्रेरित पौलुस को उन्हें याद दिलाना पड़ा कि वास्तव में कोई योग्य नहीं था; यह तो परमेश्वर की अपात्र कृपा थी जिसने किसी के लिए भी उद्धार प्राप्त करना संभव बनाया। (रोमियों ३:९-१२, २३, २४) हमें आनन्दित होना चाहिए कि परमेश्वर की अपात्र कृपा अब इतने सारे लोगों तक पहुँच रही है, जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार से सुसमाचार सुनने के अवसर से वंचित रखा गया था। (१ तीमुथियुस २:४) हम कैसे दिखा सकते हैं कि उनके लिए हमारी चाहत सच्ची है?
१०. हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम अपने बीच “परदेशियों” की सच्ची पहुनाई करते हैं?
१० हम पौलुस की सलाह पर अमल कर सकते हैं: “जैसा मसीह ने भी परमेश्वर की महिमा के लिये तुम्हें ग्रहण किया है, वैसे ही तुम भी एक दूसरे को ग्रहण करो।” (रोमियों १५:७) यह जानते हुए कि दूसरे देशों या पृष्ठभूमियों के लोग प्रायः असुविधा में होते हैं, जब ऐसा करना हमारे बस में है तब हमें उनको कृपा दिखानी चाहिए और उनकी परवाह करनी चाहिए। हमें अपने बीच में उनको ग्रहण करना चाहिए, उन में से हरेक के साथ “देशी के समान” व्यवहार करना चाहिए, और “उस से अपने ही समान प्रेम रखना” चाहिए। (लैव्यव्यवस्था १९:३४) ऐसा करना शायद आसान न हो, लेकिन हम सफल होंगे यदि हम यह सलाह याद रखें: “इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।”—रोमियों १२:२.
पवित्र लोगों के साथ बाँटें
११, १२. (क) प्राचीन इस्राएल में (ख) प्रथम शताब्दी में, यहोवा के अमुक सेवकों को कौन-सी ख़ास विचारशीलता दिखायी गयी?
११ उनमें जो सचमुच हमारी विचारशीलता और पहुनाई के योग्य हैं प्रौढ़ मसीही हैं जो हमारे आध्यात्मिक हित के लिए परिश्रम करते हैं। प्राचीन इस्राएल में यहोवा ने याजकों और लेवियों के लिए ख़ास प्रबन्ध किए। (गिनती १८:२५-२९) प्रथम शताब्दी में, मसीहियों से उनकी देखरेख करने का भी आग्रह किया गया था जो ख़ास पदों पर उनकी सेवा करते थे। तीसरा यूहन्ना ५-८ का वृत्तान्त हमें प्रारंभिक मसीहियों के बीच प्रेम का जो घनिष्ठ बन्धन था उसकी एक झलक देता है।
१२ वृद्ध प्रेरित यूहन्ना ने उस कृपा और पहुनाई का बहुत मूल्यांकन किया जो गयुस ने कलीसिया में भेंट करने के लिए भेजे गए अमुक सफ़री भाइयों के लिए दिखायी थी। ये भाई—जिनमें देमेत्रियुस, प्रत्यक्षतः यह पत्री लानेवाला भी था—सभी पहले गयुस के लिए अजनबी या अनजान थे। लेकिन उनका स्वागत किया गया क्योंकि “वे [परमेश्वर के] नाम के लिये निकले” थे। यूहन्ना ने इसे इस तरह कहा: “इसलिये ऐसों का स्वागत करना चाहिए, जिस से हम भी सत्य के पक्ष में उन के सहकर्मी हों।”—३ यूहन्ना १, ७, ८.
१३. आज हमारे बीच ख़ासकर कौन ‘स्वागत किए जाने’ के योग्य हैं?
१३ आज, यहोवा के संगठन में ऐसे अनेक जन हैं जो भाइयों के सम्पूर्ण संघ के लिए अपने आपको परिश्रमपूर्वक लगा रहे हैं। इनमें सम्मिलित हैं सफ़री ओवरसियर, जो कलीसियाओं को मज़बूत करने में सप्ताह पर सप्ताह अपना समय और शक्ति लगाते हैं; मिशनरी, जो परदेश में प्रचार करने के लिए परिवारों और मित्रों को पीछे छोड़ जाते हैं; वे जो बॆथॆल घरों या शाखा दत्नतरों में सेवा करते हैं, जो विश्वव्यापी प्रचार कार्य का समर्थन करने के लिए अपनी सेवाएँ स्वेच्छा से देते हैं; और वे जो पायनियर सेवा में हैं, जो अपना बहुत समय और शक्ति क्षेत्र सेवकाई में बिताते हैं। मूलतः, ये सभी परिश्रम करते हैं, किसी व्यक्तिगत महिमा या लाभ के लिए नहीं, बल्कि मसीही भाईचारे और यहोवा के लिए प्रेम के कारण। अपनी एकनिष्ठ भक्ति के कारण वे हमारे अनुकरण के योग्य हैं और ‘स्वागत किए जाने’ के योग्य हैं।
१४. (क) यह कैसे है कि जब हम विश्वासयोग्य जनों की पहुनाई करते हैं तब हम बेहतर मसीही बन जाते हैं? (ख) यीशु ने क्यों कहा कि मरियम ने “उत्तम भाग” चुन लिया?
१४ जब हम ‘ऐसों का स्वागत करते हैं,’ तब प्रेरित यूहन्ना ने बताया कि हम “सत्य के पक्ष में उन के सहकर्मी” बनते हैं। एक अर्थ में हम इसके फलस्वरूप बेहतर मसीही बनते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मसीही कार्यों में संगी विश्वासियों के लिए भला करना सम्मिलित है। (नीतिवचन ३:२७, २८; १ यूहन्ना ३:१८) एक और तरीक़े से भी प्रतिफल हैं। जब मरियम और मार्था ने अपने घर में यीशु का स्वागत किया, तब मार्था यीशु के लिए ‘अनेक वस्तुएँ’ (NW) बनाने के द्वारा एक अच्छी मेज़बान होना चाहती थी। मरियम ने एक अलग तरीक़े से पहुनाई की। वह ‘प्रभु के पांवों के पास बैठकर उसका वचन सुनती रही,’ और यीशु ने “उत्तम भाग” को चुनने के लिए उसकी सराहना की। (लूका १०:३८-४२) जिनके पास बहुत सालों का अनुभव है उनके साथ बातचीत और चर्चा अकसर उनकी संगति में बितायी एक शाम की विशेषता होती है।—रोमियों १:११, १२.
ख़ास अवसरों पर
१५. कौन-से ख़ास अवसर यहोवा के लोगों के लिए सुखकर समय साबित हो सकते हैं?
१५ जबकि सच्चे मसीही प्रचलित रिवाज़ों को नहीं मानते या सांसारिक उत्सवों और त्योहारों को नहीं मनाते, फिर भी ऐसे अवसर होते हैं जब वे एकसाथ मिलकर एक दूसरे की संगति का आनन्द लेते हैं। उदाहरण के लिए, यीशु काना में एक विवाह-भोज में गया और वहाँ अपना पहला चमत्कार करने के द्वारा अवसर के आनन्द को बढ़ाया। (यूहन्ना २:१-११) उसी प्रकार, आज यहोवा के लोग वैसे ही ख़ास अवसरों पर मिलकर सुखकर समय बिताते हैं, और उचित हर्षोल्लास और उत्साह का ऐसे मौक़ों में काफ़ी योग होता है। लेकिन, उचित क्या है?
१६. ख़ास अवसरों के लिए भी हमारे पास उचित आचरण के बारे में कौन-से मार्गदर्शन हैं?
१६ बाइबल के हमारे अध्ययन से, हम सीखते हैं कि मसीहियों के लिए उचित आचरण क्या है, और इस पर हम हर समय चलते हैं। (रोमियों १३:१२-१४; गलतियों ५:१९-२१; इफिसियों ५:३-५) सामाजिक समूहन, चाहे विवाह के सम्बन्ध में हों या किसी अन्य कारण से हों, हमें अपने मसीही स्तरों को त्यागने या कोई ऐसा काम करने की छूट नहीं देते जो हम सामान्यतः नहीं करते; न ही हम उस देश के सभी रिवाज़ मानने के लिए बाध्य हैं जहाँ हम रहते हैं। इनमें से अनेक झूठे धार्मिक अभ्यासों या अन्धविश्वासों पर आधारित होते हैं, और दूसरों में ऐसा आचरण सम्मिलित होता है जो स्पष्टतया मसीहियों को स्वीकार नहीं है।—१ पतरस ४:३, ४.
१७. (क) कौन-से तत्व दिखाते हैं कि काना में विवाह-भोज सुव्यवस्थित और सुचारु रूप से संचालित था? (ख) कौन-सी बात सूचित करती है कि यीशु ने उस अवसर का समर्थन किया?
१७ यूहन्ना २:१-११ पढ़ने पर, हमारे लिए यह देखना कठिन नहीं है कि वह एक भव्य अवसर था और वहाँ बड़ी संख्या में मेहमान थे। लेकिन, यीशु और उसके शिष्य “नेवते” पर गए थे; वे यूँ ही नहीं आ टपके थे, जबकि संभवतः उनमें से कुछ मेज़बान के सम्बन्धी थे। हम यह भी नोट करते हैं कि वहाँ “सेवक” थे, साथ ही एक “प्रधान” था, जो बताता कि क्या परोसना या करना है। यह सब सूचित करता है कि वह अवसर सुव्यवस्थित और सुचारु रूप से संचालित था। वृत्तान्त यह कहते हुए समाप्त होता है कि भोज पर यीशु ने जो किया उसके द्वारा उसने “अपनी महिमा प्रकट की।” क्या उसने वह करने के लिए उस अवसर को चुना होता यदि वह एक ऊधमी और जंगली पार्टी होती? निश्चित ही नहीं।
१८. किसी भी सामाजिक अवसर के बारे में किस बात पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए?
१८ तो, ऐसे किसी ख़ास अवसर के बारे में क्या जो शायद हम आयोजित करें? हम याद रखना चाहते हैं कि दूसरों की पहुनाई करने का उद्देश्य है कि हम सभी “सत्य के पक्ष में . . . सहकर्मी हों।” अतः, एक अवसर को “साक्षी” समूहन की छाप देना काफ़ी नहीं है। यह प्रश्न पूछा जा सकता है, क्या यह असल में इस बात का एक साक्षी है कि हम कौन हैं और हम क्या विश्वास करते हैं? हमें ऐसे अवसरों को कभी यह देखने के मौक़े नहीं समझना चाहिए कि हम संसार के तौर-तरीक़ों की नक़ल करने में, “शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड” करने में किस हद तक जा सकते हैं। (१ यूहन्ना २:१५, १६) इसके बजाय, इन अवसरों पर यहोवा के साक्षियों के रूप में हमारी भूमिका उचित रीति से दिखायी देनी चाहिए, और हमें निश्चित होना चाहिए कि हम जो करते हैं उससे यहोवा को महिमा और सम्मान मिलता है।—मत्ती ५:१६; १ कुरिन्थियों १०:३१-३३.
‘बिना कुड़कुड़ाए पहुनाई करें’
१९. हमें “बिना कुड़कुड़ाए एक दूसरे की पहुनाई” क्यों करने की ज़रूरत है?
१९ जैसे-जैसे संसार की परिस्थिति बिगड़ती जा रही है और लोग अधिकाधिक विभाजित हो रहे हैं, हमें सच्चे मसीहियों के बीच जो घनिष्ठ बन्धन है उसे मज़बूत करने के लिए अपनी भरसक कोशिश करने की ज़रूरत है। (कुलुस्सियों ३:१४) इस लक्ष्य से, हमें “एक दूसरे से अधिक प्रेम” रखना है, जैसा पतरस ने हम से आग्रह किया। फिर, व्यावहारिक दृष्टि से, उसने आगे कहा: “बिना कुड़कुड़ाए एक दूसरे की पहुनाई करो।” (१ पतरस ४:७-९) क्या हम अपने भाइयों की पहुनाई करने के लिए पहल करने, आगे बढ़कर कृपालु और मददगार होने के लिए तत्पर हैं? या क्या हम कुड़कुड़ाते हैं जब ऐसा अवसर आता है? यदि हम ऐसा करते हैं, तो हम उस आनन्द को व्यर्थ कर देते हैं जो हमें मिल सकता है और भला करने के लिए ख़ुशी के प्रतिफल से वंचित रह जाते हैं।—नीतिवचन ३:२७; प्रेरितों २०:३५.
२०. यदि हम आज के विभाजित संसार में पहुनाई करने का अभ्यास करते हैं तो हमारे आगे कौन-सी आशिषें रखी हैं?
२० अपने संगी मसीहियों के साथ निकटता से कार्य करना, एक दूसरे के प्रति कृपालु होना और पहुनाई करना असीम आशिषें लाएगा। (मत्ती १०:४०-४२) ऐसों को यहोवा ने प्रतिज्ञा की कि वह “उन के ऊपर अपना तम्बू तानेगा। वे फिर भूखे और प्यासे न होंगे।” यहोवा के तम्बू में होने का अर्थ है उसकी सुरक्षा और पहुनाई का आनन्द लेना। (प्रकाशितवाक्य ७:१५, १६; यशायाह २५:६) जी हाँ, सर्वदा यहोवा की पहुनाई का आनन्द लेने की प्रत्याशा एकदम सामने है।—भजन २७:४; ६१:३, ४.
क्या आप समझा सकते हैं?
◻ यदि हम सच्चा आनन्द और संतुष्टि पाना चाहते हैं तो हमें किस बात की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए?
◻ ‘अनाथ और विधवाएँ’ कौन हैं, और हमें उनकी “सुधि” कैसे लेनी चाहिए?
◻ हमें अपने बीच “परायों” और “परदेशियों” को किस दृष्टि से देखना चाहिए?
◻ आज कौन ख़ास विचारशीलता के योग्य हैं?
◻ किस प्रकार ख़ास अवसरों पर पहुनाई की वास्तविक आत्मा दिखायी देनी चाहिए?
[पेज 16, 17 पर तसवीरें]
हम उत्साह के अवसरों पर परदेशियों, अनाथ बालकों, पूर्ण-समय के सेवकों, और अन्य मेहमानों की पहुनाई कर सकते हैं