क्यों हमें विश्वास और बुद्धि की ज़रूरत है
याकूब की पत्री से विशिष्टताएँ
यहोवा के सेवकों को कष्ट के समय में सहनशक्ति की ज़रूरत है। उन्हें पापों से भी दूर रहना चाहिए जो कि दैवी अस्वीकृति का कारण बनेंगी। याकूब की पत्री ऐसी बातों पर ज़ोर डालती है, और उनके विषय में कुछ निश्चित रूप से करने के लिए, सक्रिय विश्वास और स्वर्गीय बुद्धि की आवश्यकता है।
इस पत्री का लेखक अपना परिचय यीशु के याकूब नामक दो प्रेरितों के तौर से नहीं, बरन “परमेश्वर और मसीह के दास” के तौर से करता है। इसी प्रकार, यीशु का सौतेला भाई यहूदा कहता है कि वह “यीशु मसीह का दास, पर याकूब का भाई” है। (याकूब १:१; यहूदा १; मत्ती १०:२, ३) इस कारण, यीशु के सौतेले भाई याकूब ने निश्चित ही वह पत्री लिखी है, जिस पर उसका नाम है।—मरकुस ६:३.
यह पत्री सामान्य युग वर्ष ७० में हुए यरूशलेम के नाश की चर्चा नहीं करती है, और इतिहासकार जोसीफ़स यह संकेत करता है कि सा.यु. के लगभग वर्ष ६२ में रोमी प्रतिनिधि फेस्तुस की मृत्यु के कुछ ही समय बाद, याकूब को शहीद बनाया गया। निश्चित ही, फिर, यह पत्री सा.यु. वर्ष ६२ से पहले लिखी गयी। यह आत्मिक इस्राएल के “बारह गोत्रों” को सम्बोधित करती है, क्योंकि यह उन की ओर निर्दिष्ट है, जो “हमारे प्रभु यीशु मसीह के विश्वास” को पकड़े हुए हैं।—याकूब १:१; २:१; गलतियों ६:१६.
याकूब ऐसे दृष्टान्तों का प्रयोग करता है जो उसके परामर्श को याद रखने में हमारी सहायता कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, उस ने दिखलाया कि जो मनुष्य परमेश्वर से बुद्धि माँग रहा हो, वह सन्देह न करे, “क्योंकि सन्देह करनेवाला समुद्र की लहर के समान है, जो हवा से बहती और उछलती है।” (१:५-८) हमारी जीभ पर क़ाबू रखना चाहिए क्योंकि वह हमारे पथ को उसी तरह नियंत्रित कर सकती है जैसे एक पतवार जहाज़ को नियंत्रित करती है। (३:१, ४) और परीक्षाओं का सामना करने के लिए, हमें सहनशील बरदाश्त दिखलाने की आवश्यकता है, उसी तरह जैसे एक किसान फ़सल की प्रतीक्षा करते समय दिखलाता है।—५:७, ८.
विश्वास, परीक्षाएँ और कर्म
याकूब पहले तो दिखलाता है कि हम परीक्षाओं के होते हुए भी, मसीही होने के कारण खुश रह सकते हैं। (१:१-१८) इन में से कुछेक परीक्षाएँ, जैसे बीमारियाँ, सभी मनुष्यों में सामान्य हैं, किन्तु मसीही इस कारण से भी कष्ट उठाते हैं, कि वे परमेश्वर और मसीह के दास हैं। यहोवा हमें सहन करने के लिए ज़रूरी बुद्धि देंगे अगर हम विश्वास में उस से माँगते रहें। वह दुष्ट बातों से हमारी परीक्षा कभी नहीं लेते, और हम उन पर विश्वास कर सकते हैं कि वह अच्छी चीज़ों का प्रबन्ध करेंगे।
परमेश्वर की सहायता पाने के लिए, हमें उनकी उपासना ऐसे कर्मों के द्वारा करनी चाहिए, जो हमारे विश्वास को प्रगट करते हों। (१:१९–२:२६) इस के लिए ज़रूरी है कि हम “वचन पर चलनेवाले” हों, न कि सिर्फ़ सुननेवाले। हमें जीभ पर लगाम रखना, अनाथों और विधवाओं की सुधि लेना, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखना चाहिए। अगर हम ने धनवानों का पक्ष लिया और कंगालों की अवहेलना की, तो हम प्रेम की “राज्य व्यवस्था” का उल्लंघन करते। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि विश्वास कर्म से दिखलाया जाता है, जैसे इब्राहीम और राहाब के उदाहरण अच्छी तरह से दर्शाते हैं। निश्चय, “विश्वास . . . कर्म बिना मरा हुआ है।”
स्वर्गीय बुद्धि और प्रार्थना
शिक्षकों को अपनी ज़िम्मेवारियों का पालन करने के लिए विश्वास और बुद्धि दोनों की ज़रूरत है। (३:१-१८) उपदेशकों के तौर से, उनकी बहुत भारी ज़िम्मेवारी है। उन की तरह, हमें भी ज़बान पर क़ाबू रखना है—एक ऐसी बात जिसे करने में स्वर्गीय बुद्धि हमारी मदद करती है।
बुद्धि हमें यह समझने में भी मदद करती है कि सांसारिक झुकावों के आगे हार मान लेना, परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को ख़राब करेगा। (४:१-५:१२) अगर हम ने स्वार्थी उद्देश्यों को पाने के लिए संघर्ष किया है, या अपने भाइयों की निन्दा की है, तो हमें पश्चाताप करना चाहिए। और संसार से मित्रता करने से बचे रहना कितना ही ज़रूरी है, क्योंकि यह आत्मिक व्यभिचार है! भौतिकवादी आयोजन करने से हम कभी भी परमेश्वर की इच्छा की अवहेलना न करें, और अधीरता की आत्मा तथा एक दूसरे के विरुद्ध आह भरने से चौकस रहें।
जो भी आत्मिक रूप से रोगी हों, उसे कलीसिया के प्राचीनों की सहायता लेनी चाहिए। (५:१३-२०) अगर पाप किए गए हों, तो उनकी प्रार्थनाएँ और बुद्धिमान सलाह एक पश्चातापी पापी की आत्मिक सेहत को उसकी पहली अवस्था में लाने में मदद करेंगी। वास्तव में, “जो कोई किसी पापी को उसके भटके मार्ग से फेर लाएगा, वह [उस अपराधी के] प्राण को [आत्मिक और अनन्तकाल की] मृत्यु से बचाएगा।”
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वचन पर चलनेवाले: हमें “वचन पर चलनेवाले, और न सिर्फ़ सुननेवाले” होना चाहिए। (याकूब १:२२-२५) एक सुननेवाला मात्र, “उस मनुष्य के समान है जो अपना स्वाभाविक मुँह दर्पण में देखता है।” कुछ देर जाँचने के बाद, वह चला जाता है “और तुरन्त भूल जाता है कि वह कैसा मनुष्य है।” लेकिन एक ‘वचन पर चलनेवाला,’ परमेश्वर की सिद्ध, या पूर्ण व्यवस्था की जाँच ध्यान से करता है, और उन सभी बातों को ग्रहण करता है जो एक मसीही से आवश्यक हैं। वह “उस में दृढ़ रहता है,” और लगातार उस व्यवस्था की जाँच करता है कि वह खुद को सुधारे, ताकि ध्यानपूर्वक उसके अनुरूप करे। (भजन ११९:१६) “वचन पर चलनेवाला” उस मनुष्य से कैसे भिन्न है जो दर्पण में झाँक कर भूल जाता है कि यह क्या प्रकट करता है? अजी, चलनेवाला यहोवा के वचन को काम में लाता है और उनकी कृपा का आनन्द प्राप्त करता है!—भजन १९:७-११.