समस्याओं के निपटारे के लिए एक सबक़
बहुत कम लोगों को कभी उन सब समस्याओं का सामना करना पड़ा है जिनका सामना अय्यूब ने किया। थोड़े ही समय में, वह अपनी सम्पत्ति और जीविका के खोने से, अपने सभी बच्चों की दुःखद मृत्यु से, और आख़िर में एक बहुत ही दर्दनाक रोग से तबाह हो चुका था। अपने मित्रों और रिश्तेदारों द्वारा त्याग दिए जाने पर, उसकी पत्नी ने उससे ‘परमेश्वर की निन्दा करने और मर जाने’ का आग्रह किया।—अय्यूब २:९; १९:१३, १४.
लेकिन, अय्यूब ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए प्रोत्साहन का अनोखा स्रोत है जो समान परीक्षाओं का सामना कर रहा है। उसकी परीक्षा का सकारात्मक परिणाम दिखाता है कि कठिनाई के बावजूद धीरज यहोवा के हृदय को आनन्दित करता है, जब हम व्यक्तिगत लाभ के बजाय सच्ची ईश्वरीय भक्ति से प्रेरित होते हैं।—अय्यूब, अध्याय १, २; ४२:१०-१७; नीतिवचन २७:११.
इस बाइबल वृत्तान्त में समस्याओं के निपटारे के बारे में मूल्यवान सबक़ भी हैं। परीक्षाओं का सामना करनेवाले व्यक्ति को कैसे सलाह दी जानी चाहिए—और कैसे नहीं—इसके प्रभावशाली उदाहरण यह वृत्तान्त प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, अय्यूब का अपना अनुभव हमें संतुलित रूप से प्रतिक्रिया दिखाने में मदद कर सकता है जब हम ख़ुद को कठिन परिस्थितियों के थपेड़े खाते हुए पाते हैं।
नकारात्मक सलाह देने के बारे में सबक़
अंग्रेज़ी में यह अभिव्यक्ति ‘अय्यूब का सांत्वनादाता’ उस व्यक्ति से जुड़ गयी है जो संकट के समय में सहानुभूति दिखाने के बजाय ज़ख्मों पर नमक छिड़कता है। लेकिन अय्यूब के तीन साथियों ने उचित रूप से अपने लिए जो नाम कमाया है उसके बावजूद, हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि उनके हेतु पूर्णतया बुरे थे। कुछ हद तक वे शायद अपने ग़लत विचारों के सामंजस्य में अय्यूब की मदद करना चाहते थे। वे असफल क्यों रहे? वे शैतान के साधन कैसे बने, जो अय्यूब की खराई तोड़ने के लिए दृढ़संकल्प था?
लगभग उनकी सारी सलाह एक ग़लत अनुमान पर आधारित थी: कि दुःख सिर्फ़ उन्हें आता है जो पाप करते हैं। अपने पहले कथन में, एलीपज ने कहा: “क्या तुझे मालूम है कि कोई निर्दोष भी कभी नाश हुआ है? या कहीं सज्जन भी काट डाले गए? मेरे देखने में तो जो पाप को जोतते और दुःख बोते हैं, वही उसको काटते हैं।” (अय्यूब ४:७, ८) एलीपज का यह ग़लत विश्वास था कि निर्दोष विपत्ति से सुरक्षित हैं। उसने तर्क किया कि क्योंकि अय्यूब इतनी कष्टकर स्थिति में था, उसने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया होगा।a समान रूप से बिलदद और सोपर ने इस बात पर बल दिया कि अय्यूब अपने पापों से पश्चाताप करे।—अय्यूब ८:५, ६; ११:१३-१५.
अय्यूब के तीन साथियों ने ईश्वरीय बुद्धि के बजाय व्यक्तिगत विचार व्यक्त करने के द्वारा अय्यूब को और हताश कर दिया। एलीपज इतना कहने की हद तक गया कि ‘परमेश्वर अपने सेवकों पर भरोसा नहीं रखता’ और कि यहोवा को इसकी परवाह नहीं थी कि अय्यूब धर्मी है या नहीं। (अय्यूब ४:१८; २२:२, ३) इससे और ज़्यादा निरुत्साहित करनेवाली—या ज़्यादा झूठी—टिप्पणी की कल्पना करना मुश्किल है! इसमें आश्चर्य नहीं कि यहोवा ने बाद में एलीपज और उसके साथियों को इस ईशनिन्दा के लिए फटकारा। ‘तुम लोगों ने मेरे विषय में ठीक बात नहीं कही,’ उसने कहा। (अय्यूब ४२:७) लेकिन सबसे ज़्यादा चोट पहुँचानेवाला दावा अब भी आना बाक़ी था।
एलीपज आख़िरकार सीधे इल्ज़ाम लगाने की हद तक पहुँच गया। क्योंकि वह अय्यूब से उसके दोषी होने की स्वीकृति निकलवाने में असमर्थ रहा, उसने ऐसे पापों को गढ़ना शुरू किया जो उसने मान लिया कि अय्यूब ने किए होंगे। “क्या तेरी बुराई बहुत नहीं? तेरे अधर्म के कामों का कुछ अन्त नहीं”? एलीपज ने पूछा। “तू ने तो अपने भाई का बन्धक अकारण रख लिया है, और नंगे के वस्त्र उतार लिये हैं। थके हुए को तू ने पानी न पिलाया, और भूखे को रोटी देने से इनकार किया।” (अय्यूब २२:५-७) ये इल्ज़ाम बिल्कुल बेबुनियाद थे। यहोवा ने ख़ुद अय्यूब का वर्णन एक ऐसे मनुष्य के तौर पर किया था जो “खरा और सीधा” था।—अय्यूब १:८.
अय्यूब ने अपनी निजी ईमानदारी पर इन हमलों के प्रति कैसे प्रतिक्रिया दिखायी? समझने की बात है कि इन हमलों ने उसे कुछ-कुछ कटु और हताश कर दिया, लेकिन यह साबित करने के लिए और भी दृढ़निश्चयी किया कि ये इल्ज़ाम झूठे थे। असल में, वह अपने दोषनिवारण में इतना तल्लीन हो गया कि एक तरीक़े से, वह अपनी दुर्दशा के लिए यहोवा पर दोष लगाने लगा। (अय्यूब ६:४; ९:१६-१८; १६:११, १२) जो वास्तविक वाद-विषय अंतर्ग्रस्त थे उन्हें नज़रअंदाज़ किया गया, और वह चर्चा एक निरर्थक बहस हो गयी कि अय्यूब एक धर्मी मनुष्य था या नहीं। मसीही इस अनर्थकारी सलाहकारी बैठक से कौन-से सबक़ सीख सकते हैं?
१. एक प्रेमपूर्ण मसीही पहले से ही यह नहीं मान लेता कि एक भाई की समस्याएँ उसकी अपनी ग़लती की वजह से हैं। पिछली ग़लतियों की कठोर आलोचना—चाहे वास्तविक ग़लतियाँ हों या काल्पनिक—एक व्यक्ति को पूर्णतया निरुत्साहित कर सकती है जो साहस खोए बिना आगे बढ़ते रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। हताश प्राणी को दुत्कारने के बजाय ‘सांत्वना’ देने की ज़रूरत है। (१ थिस्सलुनीकियों ५:१४, NW) यहोवा चाहता है कि ओवरसियर ‘आंधी से छिपने के स्थान’ हों, ना कि एलीपज, बिलदद और सोपर की तरह “निकम्मे शान्तिदाता।”—यशायाह ३२:२; अय्यूब १६:२.
२. हमें कभी भी स्पष्ट सबूत के बिना कोई इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए। कही-सुनी बातें या अनुमान—एलीपज के अनुमानों की तरह—ताड़ना देने के लिए ठोस आधार नहीं होते। उदाहरण के लिए, यदि एक प्राचीन ग़लत इल्ज़ाम लगाता है, वह संभवतः अपनी विश्वसनीयता खो देता है और भावात्मक तनाव पैदा करता है। अय्यूब ने कैसा महसूस किया जब उसे ऐसी पथभ्रष्ट सलाह सुननी पड़ी? उसने इस व्यंग्यपूर्ण अभिव्यक्ति से अपने मन के ग़ुबार को निकाला: “निर्बल जन की तू ने क्या ही बड़ी सहायता की।” (अय्यूब २६:२) एक चिन्तित ओवरसियर ‘ढीले हाथों को सीधा करेगा’ न कि समस्या को बदतर करेगा।—इब्रानियों १२:१२.
३. सलाह को परमेश्वर के वचन पर आधारित होना चाहिए, व्यक्तिगत विचारों पर नहीं। अय्यूब के साथियों की दलीलें ग़लत और विनाशक दोनों थीं। अय्यूब को यहोवा के क़रीब ले जाने के बजाय, उन्होंने उसे यह सोचने के लिए प्रेरित किया कि उसे कोई बाधा अपने स्वर्गीय पिता से अलग कर रही थी। (अय्यूब १९:२, ६, ८) दूसरी ओर, बाइबल का कुशल प्रयोग मामलों को ठीक कर सकता है, दूसरों में जान डाल सकता है, और सच्ची सांत्वना दे सकता है।—लूका २४:३२; रोमियों १५:४; २ तीमुथियुस ३:१६; ४:२.
जबकि अय्यूब की पुस्तक मसीहियों को कुछ फन्दों को पहचानने में मदद करती है, प्रभावकारी सलाह कैसे दें इस बारे में भी यह उपयोगी सबक़ प्रदान करती है।
सलाह कैसे दें
एलीहू की सलाह अय्यूब के तीन साथियों से पूर्णतया भिन्न थी, उसके विषय और जिस तरह एलीहू ने अय्यूब से व्यवहार किया दोनों में। उसने अय्यूब का नाम लिया और उससे एक दोस्त की तरह बात की, ना कि अय्यूब के न्यायी की तरह। “तौभी हे अय्यूब! मेरी बातें सुन ले, और मेरे सब वचनों पर कान लगा। देख मैं ईश्वर के सन्मुख तेरे तुल्य हूं; मैं भी मिट्टी का बना हुआ हूं।” (अय्यूब ३३:१, ६) एलीहू अय्यूब के खरे जीवन के लिए उसकी सराहना करने के लिए भी तत्पर था। “मैं ने तेरी धार्मिकता में रुचि ली है,” उसने अय्यूब को आश्वस्त किया। (अय्यूब ३३:३२, NW) इस कृपापूर्ण तरीक़े से सलाह देने के अलावा, एलीहू अन्य कारणों से भी सफल रहा।
जब तक अन्य लोगों ने अपनी बात पूरी न कर ली तब तक धीरज से रुकने के कारण, एलीहू सलाह देने से पहले वाद-विषयों को ज़्यादा अच्छी तरह से समझ पाया। माना कि अय्यूब एक धर्मी मनुष्य था, तो क्या यहोवा उसे दण्ड देता? “यह सम्भव नहीं कि ईश्वर दुष्टता का काम करे, और सर्वशक्तिमान बुराई करे।” एलीहू के कहा। “वह धर्मियों से अपनी आंखें नहीं फेरता।”—अय्यूब ३४:१०; ३६:७.
क्या अय्यूब की धार्मिकता वास्तव में मुख्य वाद-विषय थी? एलीहू ने अय्यूब का ध्यान एक असंतुलित दृष्टिकोण की ओर आकर्षित किया। उसने कहा, “क्या तू दावा करता है कि तेरा धर्म ईश्वर के धर्म से अधिक है? आकाश की ओर दृष्टि करके देख; और आकाशमण्डल को ताक, जो तुझ से ऊंचा है।” (अय्यूब ३५:२, ५) जैसे आकाशमण्डल हम से काफ़ी ऊँचा है, उसी तरह यहोवा के मार्ग हमारे मार्गों से ऊँचे हैं। हम इस स्थिति में नहीं हैं कि उसके कार्य करने के तरीक़ों की आलोचना करें। “इसी कारण सज्जन उसका भय मानते हैं, और जो अपनी दृष्टि में बुद्धिमान हैं, उन पर वह दृष्टि नहीं करता,” एलीहू ने निष्कर्ष निकाला।—अय्यूब ३७:२४; यशायाह ५५:९.
एलीहू की ठोस सलाह अय्यूब को उचित मानसिक अवस्था में ले आयी कि स्वयं यहोवा से अतिरिक्त उपदेश प्राप्त करे। वास्तव में, अध्याय ३७ में “ईश्वर के आश्चर्यकर्मों” की एलीहू की समीक्षा के बीच और ३८ से ४१ अध्यायों में अभिलिखित अय्यूब को कहे गए स्वयं यहोवा के शब्दों के बीच उल्लेखनीय समानता है। स्पष्टतया, एलीहू ने यहोवा के दृष्टिकोण से मामलों को देखा। (अय्यूब ३७:१४) मसीही कैसे एलीहू के बढ़िया उदाहरण की नक़ल कर सकते हैं?
एलीहू की तरह, विशेषकर ओवरसियर सहानुभूतिपूर्ण और कृपालु होना चाहते हैं। वे याद रखते हैं कि वे भी अपरिपूर्ण हैं। यह अच्छा होगा कि वे पहले ध्यानपूर्वक सुनें ताकि सलाह देने से पहले सभी सम्बन्धित तथ्य जान लें और वाद-विषयों को समझ लें। (नीतिवचन १८:१३) इसके अतिरिक्त, बाइबल और शास्त्रीय प्रकाशनों को प्रयोग करने के द्वारा, वे इस बात को निश्चित कर सकते हैं कि यहोवा का दृष्टिकोण प्रबल हो।—रोमियों ३:४.
प्राचीनों के लिए ये व्यावहारिक सबक़ देने के अलावा, अय्यूब की पुस्तक हमें सिखाती है कि एक संतुलित तरीक़े से कैसे समस्याओं का सामना करें।
कठिन परिस्थितियों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया न दिखाएँ
अपनी पीड़ा से तबाह और अपने झूठे सांत्वनादाताओं से कुण्ठित, अय्यूब कटुता से भर गया और हताश हो गया। “नाश हो वह दिन जिसमें मैं पैदा हुआ, . . . मैं अपने जीवन से ऊब गया हूं।” उसने कराहकर कहा। (अय्यूब ३:३, १०:१, NHT) इस बात से बेख़बर कि शैतान दोषी है, उसने यह मान लिया कि परमेश्वर उस पर विपत्तियाँ ला रहा था। यह इतना अन्यायपूर्ण प्रतीत हुआ कि वह—एक धर्मी मनुष्य—पीड़ा सहे। (अय्यूब २३:१०, ११; २७:२; ३०:२०, २१) इस मनोवृत्ति ने अय्यूब को अन्य बातों के प्रति अन्धा कर दिया और उसे मानवजाति के साथ परमेश्वर के व्यवहार की आलोचना करने को प्रेरित किया। यहोवा ने पूछा: “क्या तू मेरा न्याय भी व्यर्थ ठहराएगा? क्या तू आप निर्दोष ठहरने की मनसा से मुझ को दोषी ठहराएगा?”—अय्यूब ४०:८.
कठिनाई का सामना करते वक़्त हमारी पहली प्रतिक्रिया शायद ऐसी हो कि हमें दण्ड दिया गया है, प्रत्यक्षतः जैसे अय्यूब ने भी किया। यह प्रश्न पूछना सामान्य प्रतिक्रिया है, ‘मैं ही क्यों? क्यों और लोग—जो मुझ से कहीं बदतर हैं—अपेक्षाकृत समस्याओं से मुक्त जीवन का आनन्द उठा रहे हैं?’ ये नकारात्मक विचार हैं जिनका हम परमेश्वर के वचन पर मनन करने के द्वारा विरोध कर सकते हैं।
अय्यूब से भिन्न, हम इसमें अंतर्ग्रस्त ज़्यादा बड़े वाद-विषयों को समझने की स्थिति में हैं। हम जानते हैं कि शैतान “गर्जनेवाले सिंह की नाईं इस खोज में रहता है, कि किस को फाड़ खाए।” (१ पतरस ५:८) जैसे अय्यूब की पुस्तक प्रकट करती है, हम पर समस्याएँ लाने के द्वारा इब्लीस हमारी खराई को तोड़ने में ख़ुश होगा। वह अपना यह दावा साबित करने पर तुला हुआ है कि हम यहोवा के सिर्फ़ मतलबी गवाह हैं। (अय्यूब १:९-११; २:३-५) क्या हम में यहोवा की सर्वसत्ता का समर्थन करने का और इस तरह इब्लीस को झूठा साबित करने का साहस होगा?
यीशु का और यहोवा के अन्य अनगिनत वफ़ादार सेवकों का उदाहरण दिखाता है कि इस रीति-व्यवस्था में कुछ हद तक पीड़ा लगभग अनिवार्य है। यीशु ने कहा कि यदि उसके शिष्य उसका अनुकरण करना चाहते हैं तो उन्हें ‘अपना यातना स्तंभ उठाने’ के लिए तैयार होना चाहिए। (लूका ९:२३, NW) अय्यूब ने जो कठिनाइयाँ सहीं उनमें से एक या अधिक हमारा व्यक्तिगत “यातना स्तंभ” हो सकता है—बुरा स्वास्थ्य, प्रिय जनों की मृत्यु, हताशा, आर्थिक कठिनाई, या अविश्वासियों से विरोध। चाहे हम किसी भी प्रकार की समस्या का सामना कर रहे हों, उस स्थिति का एक सकारात्मक पहलू है। हम अपनी परिस्थिति को अपने धीरज और यहोवा के प्रति अपनी अटल निष्ठा को प्रदर्शित करने के एक अवसर के तौर पर देख सकते हैं।—याकूब १:२, ३.
यीशु के प्रेरितों ने इसी प्रकार प्रतिक्रिया दिखायी। पिन्तेकुस्त के तुरंत बाद उन्हें यीशु के बारे में प्रचार करने के लिए पीटा गया। निरुत्साहित होने के बजाय, वे “आनन्दित होकर” अपने रास्ते चले गए। वे स्वयं पीड़ा के कारण आनन्दित नहीं थे, बल्कि इसलिए कि ‘वे उसके [मसीह के] नाम के लिये निरादर होने के योग्य ठहरे।’—प्रेरितों ५:४०, ४१.
यह सच है कि, हमारी सभी मुसीबतें यहोवा की सेवा करने के परिणामस्वरूप हम पर नहीं आतीं। हमारी समस्याओं की वजह हम शायद ख़ुद हों—कम से कम कुछ हद तक। या शायद, बिना हमारी किसी ग़लती के, उस समस्या ने हमारे आध्यात्मिक संतुलन को प्रभावित किया है। स्थिति चाहे जो भी हो, अय्यूब की तरह एक नम्र मनोवृत्ति हमें यह समझने में समर्थ करेगी कि कहाँ ग़लतियाँ हुई हैं। अय्यूब ने यहोवा के सामने स्वीकार किया: “मैं ने तो जो नहीं समझता था वही कहा।” (अय्यूब ४२:३) जो व्यक्ति अपनी ग़लतियों को इस प्रकार स्वीकार करता है, ज़्यादा संभव है कि भविष्य में वह समान मुसीबतों से दूर रहेगा। जैसे एक नीतिवचन कहता है: “चतुर मनुष्य विपत्ति को आते देखकर छिप जाता है।”—नीतिवचन २२:३.
सबसे महत्त्वपूर्ण, अय्यूब की पुस्तक हमें याद दिलाती है कि हमारी समस्याएँ हमेशा नहीं रहेंगी। बाइबल कहती है: “हम धीरज धरनेवालों को धन्य कहते हैं: तुम ने ऐयूब के धीरज के विषय में तो सुना ही है, और प्रभु की ओर से जो उसका प्रतिफल हुआ उसे भी जान लिया है, जिस से प्रभु की अत्यन्त करुणा और दया प्रगट होती है।” (याकूब ५:११) हम निश्चित हो सकते हैं कि समान रूप से यहोवा आज अपने सेवकों की वफ़ादारी का भी प्रतिफल देगा।
हम उस समय का भी उत्सुकता से इंतज़ार करते हैं जब हर प्रकार की समस्याएँ—“पहिली बातें”—गुज़र चुकी होंगी। (प्रकाशितवाक्य २१:४) जब तक वह दिन न आए, अय्यूब की पुस्तक हमें समस्याओं का निपटारा बुद्धि और धैर्य से करने के लिए मदद करने में एक अमूल्य मार्गदर्शक के तौर पर कार्य करती है।
[पेज 28 पर तसवीरें]
a जबकि बाइबल कहती है कि “मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा,” इसका अर्थ यह नहीं है कि एक व्यक्ति की पीड़ा ईश्वरीय दण्ड ही होगा। (गलतियों ६:७) शैतान द्वारा शासित इस संसार में, धर्मी अकसर दुष्ट से ज़्यादा समस्याओं का सामना करते हैं। (१ यूहन्ना ५:१९) “मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे,” यीशु ने अपने शिष्यों से कहा। (मत्ती १०:२२) बीमारी और अन्य क़िस्म के संकट परमेश्वर के विश्वासी सेवकों में से किसी पर भी आ सकते हैं।—भजन ४१:३; ७३:३-५; फिलिप्पियों २:२५-२७.
[पेज 28 पर तसवीरें]
“आकाशमण्डल को ताक, जो तुझ से ऊंचा है।” एलीहू ने इस तरह अय्यूब को यह समझने में मदद की कि परमेश्वर के मार्ग मानव के मार्गों से ऊँचे हैं