जीवन कहानी
त्याग की ज़िंदगी से मिली ढेरों आशीषें और खुशियाँ
मैरियौं और रोज़ा शुमिगा की ज़ुबानी
भजन 54:6 कहता है: “मैं तुझे स्वेच्छाबलि चढ़ाऊंगा।” यह आयत, फ्रांस के रहनेवाले मैरियौं शुमिगा और उसकी पत्नी, रोज़ा की ज़िंदगी का उसूल रही है। वे दोनों एक लंबे अरसे से यहोवा की सेवा कर रहे हैं और इसमें उन्हें ढेरों आशीषें मिली हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी ज़िंदगी की कुछ खास बातें बतायीं।
मैरियौं: मेरे माता-पिता रोमन कैथोलिक थे, जो पोलैंड से यहाँ फ्रांस आकर बस गए थे। पिताजी गरीब थे और बहुत नम्र स्वभाव के थे। उन्हें कभी स्कूल जाने का मौका नहीं मिला। मगर पहले विश्वयुद्ध के दौरान, जब वे सेना में थे तब उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा। वे परमेश्वर का भय माननेवाले इंसान थे, मगर चर्च के लोगों की करतूतें देखकर वे कई बार निराश हुए।
खासकर एक वाकया तो वे कभी नहीं भूल सके। युद्ध के दौरान, एक दिन एक पादरी, सेना की उस टुकड़ी से मिलने आया जिसमें पिताजी भी थे। तभी पास में एक ज़ोरदार धमाका हुआ तो पादरी वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गया। वह अपने घोड़े को तेज़ भगाने के लिए उसे क्रूस से मारने लगा। पिताजी यह देखकर चौंक गए कि परमेश्वर का “दूत” अपनी जान बचाने के लिए एक “पवित्र” चीज़ का इस्तेमाल कर रहा है। पिताजी के साथ ऐसे कई वाकए हुए और उन्होंने युद्ध में कई दिल-दहलानेवाली घटनाएँ देखी थीं, फिर भी परमेश्वर पर उनका विश्वास कमज़ोर नहीं हुआ। वे युद्ध से सही-सलामत घर लौटने के लिए अकसर परमेश्वर का धन्यवाद करते थे।
“छोटा पोलैंड”
सन् 1911 में पिताजी ने पासवा के गाँव की एक लड़की से शादी की। उसका नाम था, ऐना सीसॉवस्की। युद्ध के कुछ ही समय बाद, सन् 1919 में पिताजी और माँ पोलैंड छोड़कर फ्रांस में बस गए और यहाँ पिताजी को कोयले की एक खान में काम मिला। मेरा जन्म मार्च 1926 में, दक्षिण-पश्चिमी फ्रांस के कैन्याक-लीमीन्नी नाम के कस्बे में हुआ। इसके बाद, मेरे माता-पिता उत्तरी फ्रांस में, लॉन्क्स शहर के पास लोस-अंगुएला की एक पोलिश बस्ती में रहने लगे। यहाँ का पादरी, कसाई और केक वगैरह बनानेवाला बेकर भी पोलैंड का था। इसलिए ताज्जुब नहीं कि यह इलाका छोटा पोलैंड कहलाया। मेरे माता-पिता, ऐसे कामों में भी हिस्सा लेते थे जिनसे बिरादरी को फायदा हो। पिताजी अकसर ऐसे कार्यक्रमों का इंतज़ाम करते थे जिनमें नाटक, संगीत और गाने हुआ करते थे। इसके अलावा, पादरी के साथ भी उनकी बराबर बातचीत हुआ करती थी। मगर इससे उन्हें कभी संतुष्टि नहीं मिली क्योंकि पादरी का हमेशा एक ही जवाब रहता था, “ज़िंदगी में बहुत-से रहस्य हैं।”
सन् 1930 में एक दिन दो स्त्रियों ने हमारे घर का दरवाज़ा खटखटाया। वे बाइबल विद्यार्थी थीं। उन दिनों यहोवा के साक्षी इसी नाम से जाने जाते थे। पिताजी ने उनसे एक बाइबल ली। यह एक ऐसी किताब थी जिसे वे बरसों से पढ़ना चाहते थ। उन स्त्रियों ने हमें बाइबल समझानेवाले कुछ साहित्य भी दिए जिन्हें पिताजी और माँ ने बड़ी दिलचस्पी से पढ़ा। इनमें लिखी बातों ने मेरे माता-पिता के दिल पर गहरा असर किया। हालाँकि वे बहुत व्यस्त रहते थे, फिर भी वे बाइबल विद्यार्थियों की सभाओं में जाने लगे। अब तो पादरी के साथ गरमागरम बहस होने लगीं और आखिरकार एक दिन उसने मेरे माता-पिता को धमकी दी कि अगर वे बाइबल विद्यार्थियों के साथ मेल-जोल बंद नहीं करेंगे, तो मेरी बहन स्तिफानी को कैटकिज़्म क्लास से निकाल दिया जाएगा। तब पिताजी ने उससे कहा: “आप ज़्यादा परेशान मत होइए। अब से मेरी बेटी और बाकी बच्चे हमारे साथ बाइबल विद्यार्थियों की सभाओं में जाएँगे।” पिताजी ने चर्च छोड़ दिया और सन् 1932 की शुरूआत में उन्होंने और माँ ने बपतिस्मा ले लिया। उस वक्त फ्रांस में राज्य प्रचारकों की गिनती बस 800 के करीब थी।
रोज़ा: मेरे माता-पिता हंगरी के थे और मैरियौं के माता-पिता की तरह, वे भी कोयले की खान में काम करने के लिए उत्तरी फ्रांस में आकर बस गए। मेरा जन्म सन् 1925 में हुआ। सन् 1937 में ओगिस्टा बज़ॉन् नाम का एक यहोवा का साक्षी, मेरे माता-पिता को हंगरी भाषा में प्रहरीदुर्ग पत्रिकाएँ लाकर देने लगा। हम उनको पापा ओगिस्टा कहते थे। मेरे माता-पिता को वे पत्रिकाएँ बहुत अच्छी लगती थीं, मगर दोनों में से कोई भी यहोवा का साक्षी नहीं बना।
उस वक्त मैं बहुत छोटी थी, फिर भी मैंने प्रहरीदुर्ग में जो पढ़ा, वह मेरे दिल को छू गया। साथ ही, पापा ओगिस्टा की बहू, सूज़ैना बज़ॉन् मेरा बहुत खयाल रखती थी। वह मुझे सभाओं में भी ले जाती थी, जिसके लिए मेरे माता-पिता ने मना नहीं किया। लेकिन बाद में, जब मैं नौकरी करने लगी तो रविवार की सभाओं के लिए मेरा जाना पिताजी को रास नहीं आया। वैसे तो वे दिल के अच्छे थे, मगर उनकी यह शिकायत रहती थी: “हफ्ते भर तो तुम घर पर रहती नहीं हो, और रविवार को भी अपनी सभाओं में चली जाती हो!” फिर भी, मैंने सभाओं में जाना नहीं छोड़ा। इसलिए एक रात उन्होंने मुझसे कहा: “अपना बोरिया-बिस्तर बाँधो और चली जाओ यहाँ से!” उस वक्त बस मैं 17 साल थी। और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस रात के वक्त मैं कहाँ जाऊँ। रो-रोकर मेरी आँखें सूज गयीं और आखिरकार मैं सूज़ैना के घर चल पड़ी। मुझे सूज़ैना के यहाँ रहते हुए एक हफ्ता भी नहीं हुआ था कि पिताजी ने मुझे घर वापस बुलाने के लिए दीदी को भेजा। मैं बहुत शर्मीली किस्म की लड़की थी, फिर भी 1 यूहन्ना 4:18 में बतायी बात ने सच्चाई के लिए दृढ़ खड़े रहने में मेरी मदद की। वह आयत कहती है कि “सिद्ध प्रेम भय को दूर कर देता है।” सन् 1942 में मेरा बपतिस्मा हो गया।
एक अनमोल आध्यात्मिक विरासत
मैरियौं: सन् 1942 में मैंने, मेरी दोनों बहनों, स्तिफानी और मिलानी ने और मेरे भाई स्तिफाना ने बपतिस्मा लिया। हमारे परिवार में परमेश्वर के वचन की खास जगह थी। हम सभी मेज़ के चारों तरफ बैठते और पिताजी हमें पोलिश भाषा में बाइबल पढ़कर सुनाते। ज़्यादातर शाम के वक्त हम माता-पिता के प्रचार के अनुभव सुना करते थे। ऐसी बातचीत ने हमें आध्यात्मिक रूप से काफी हौसला दिया और हमें यहोवा से प्यार करना और उस पर ज़्यादा-से-ज़्यादा भरोसा रखना सिखाया। बाद में जब पिताजी की तबीयत बिगड़ने लगी तो उन्हें काम छोड़ना पड़ा, फिर भी वे हमारी आध्यात्मिक और खाने-पहनने की ज़रूरतें पूरी करते रहे।
अब पिताजी के पास खाली समय रहता था, इसलिए वे हफ्ते में एक बार कलीसिया के जवानों के साथ पोलिश भाषा में बाइबल अध्ययन करते थे। उस अध्ययन के दौरान मैंने पोलिश पढ़नी सीखी। पिताजी दूसरे तरीकों से भी जवानों का उत्साह बढ़ाते थे। एक बार भाई गिस्ताव जॉफ्फेर, जो उन दिनों फ्रांस में साक्षियों के काम की देख-रेख करते थे, हमारी कलीसिया का दौरा करने आए। इस मौके पर पिताजी ने एक समूह-गान और पुरानी वेश-भूषा में बाइबल नाटक का इंतज़ाम किया। यह नाटक राजा बेलशस्सर की दावत और दीवार पर लिखाई के बारे में था। (दानिय्येल 5:1-31) दानिय्येल का किरदार भाई लूई प्येशुता ने निभाया, जिन्होंने आगे चलकर नात्ज़ियों के हमले के वक्त अपनी खराई बनाए रखी।a तो हम बच्चों की परवरिश ऐसे आध्यात्मिक माहौल में हुई थी। हमने देखा कि हमारे माता-पिता हमेशा आध्यात्मिक कामों में व्यस्त रहते थे। आज मैं समझ सकता हूँ कि उन्होंने हमारे लिए कितनी अनमोल विरासत छोड़ी है।
सन् 1939 में जब दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा, तो फ्रांस में साक्षियों के प्रचार काम पर पाबंदी लगा दी गयी। एक बार तो हमारे पूरे गाँव की तलाशी ली गयी। जर्मन सैनिकों ने सभी घरों को घेर लिया। पिताजी ने कपड़ों की अलमारी के नीचे एक नकली फर्श बनाया और वहाँ हमने कई बाइबल साहित्य छिपा दिए। लेकिन फासिस्टवाद या आज़ादी (अँग्रेज़ी) नाम की बुकलेट की कई कॉपियाँ खाने की मेज़ की दराज़ में रखी हुई थीं। पिताजी ने फौरन उनको निकालकर गलियारे में लटकी हुई एक जैकेट की जेब में छिपा दिया। हमारे घर की तलाशी लेने के लिए एक फ्रांसीसी पुलिसवाला और दो सैनिक आए। हम अपनी सांसें रोककर देख रहे थे कि अब क्या होगा। एक सैनिक, गलियारे में लटके कपड़ों में छान-बीन करने लगा, और कुछ देर बाद वह हाथ में बुकलेट लिए रसोई में आया, जहाँ हम खड़े थे। उसने हमें घूरकर देखा, फिर बुकलेट मेज़ पर रख दीं और दूसरी जगह तलाश करने लगा। मैंने झट से वे बुकलैट वहाँ से उठायीं और ऐसी दराज़ में रख दीं जिसमें सैनिक तलाशी ले चुके थे। उस सैनिक ने दोबारा उन बुकलैट के बारे में नहीं पूछा। ऐसा लग रहा था जैसे उनका खयाल ही उसके दिमाग से निकल गया हो।
पूरे समय की सेवा शुरू करना
सन् 1948 में, मैंने फैसला किया कि मैं एक पायनियर बनकर पूरे समय यहोवा की सेवा करूँगा। कुछ दिन बाद, मुझे फ्रांस के यहोवा के साक्षियों के शाखा दफ्तर से एक खत मिला। खत में मुझे बताया गया कि बेलजियम के पासवाले शहर, सिडान की कलीसिया में मुझे पायनियर सेवा करनी है। मेरे माता-पिता यह देखकर फूले न समाए कि मैंने पूरे समय की सेवा चुनी। लेकिन पिताजी ने मुझे साफ-साफ बताया कि पायनियरिंग करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसमें कड़ी मेहनत लगती है। मगर उन्होंने यह भी कहा कि उनके घर का दरवाज़ा मेरे लिए हमेशा खुला रहेगा और जब भी मुझे कोई तकलीफ हो, मैं बेझिझक उनसे मदद माँग सकता हूँ। मेरे माता-पिता के पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, फिर भी उन्होंने मुझे एक नयी साइकिल खरीदकर दी। आज भी मेरे पास उस साइकिल की रसीद है, और जब कभी मैं उसे देखता हूँ तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं। मेरे माता-पिता दोनों सन् 1961 में चल बसे, मगर पिताजी जो बुद्धि भरी सलाह मुझे दिया करते थे, वे आज भी मेरे कानों में गूँजती हैं। पायनियरिंग के सालों के दौरान उनकी बातों ने मुझे हर कदम पर मुझे हौसला और सांत्वना दी।
मुझे सिडान कलीसिया की एक बुज़ुर्ग बहन से भी काफी हौसला मिला। उनका नाम था, एलीज़ा मठ और वे 75 साल की थीं। गर्मियों में मैं दूर-दराज़ के गाँवों में प्रचार करने के लिए अपनी साइकिल से वहाँ जाता था, और मेरे साथ काम करने के लिए बहन एलीज़ा, ट्रेन से आती थीं। लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि ट्रेन के इंजीनियरों ने हड़ताल कर दी। इसलिए एलीज़ा के लिए घर जाना मुश्किल हो गया। अब मुझे एक ही उपाय सूझा। मैंने उन्हें अपनी साइकिल के पीछे बिठाकर घर पहुँचाया, हालाँकि यह सफर इतना आरामदायक नहीं था। अगली सुबह, मैंने अपनी साइकल के पीछे एक तकिया रखा और बहन एलीज़ा के घर जाकर उन्हें साइकिल से प्रचार में ले गया। इसके बाद से उन्होंने ट्रेन से आना-जाना बंद कर दिया और किराए का जो पैसा बचता, उससे वह दोपहर के खाने के वक्त हमारे लिए गरमा-गरम चाय-कॉफी वगैरह खरीदती थीं। मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी साइकिल दूसरों को लाने-ले-जाने का काम भी करेगी!
ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ
सन् 1950 में मुझे उत्तरी फ्रांस के पूरे इलाके में सर्किट ओवरसियर के तौर पर सेवा करने को कहा गया। उस वक्त मैं सिर्फ 23 साल का था, और यह बात सुनकर पहले तो मैं उलझन में पड़ गया। मैंने सोचा कि शाखा दफ्तर ने ज़रूर गलती से यह खत भेज दिया होगा। मेरे दिमाग में सवाल-पर-सवाल उठने लगे: ‘क्या मैं आध्यात्मिक और शारीरिक रूप से इस काम के काबिल हूँ? हर हफ्ते अलग-अलग जगह पर ठहरना कितना मुश्किल है, यह सब मैं कैसे झेल सकूँगा?’ और-तो-और, छः साल की उम्र से मेरी एक आँख में भेंगापन है। इसलिए मुझे हमेशा इस बात से बेचैनी महसूस होती थी कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। मगर शुक्र है कि उस वक्त भाई स्तीफान बेहूनिक ने मेरी बहुत मदद की। वे गिलियड स्कूल से ग्रेजुएट हुए मिशनरी थे। भाई बेहूनिक को पोलैंड में प्रचार करने की वजह से, वहाँ की सरकार ने देशनिकाला दे दिया था जिसके बाद उन्हें वापस फ्रांस में सेवा करने के लिए भेजा गया। मैं उनकी हिम्मत की दाद देता था। यहोवा और सच्चाई के लिए उनके दिल में गहरा आदर था। कुछ लोग सोचते थे कि वे मेरे साथ बहुत सख्ती से पेश आ रहे हैं, मगर सच तो यह है कि मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। उनकी निडरता देखकर मेरे अंदर भी आत्म-विश्वास पैदा हुआ।
सर्किट काम करते वक्त मुझे प्रचार में बढ़िया अनुभव मिले। सन् 1953 में मुझे मिस्टर पाऊली नाम के एक आदमी से मुलाकात करने को कहा गया। वह पैरिस के दक्षिण में रहता था और उसने प्रहरीदुर्ग के लिए अभिदान किया था। जब मैं उससे मिला तो पता चला कि वह सेना से रिटायर हो चुका है और उसे प्रहरीदुर्ग पत्रिका रोमांचक लगती है। उसने मुझे बताया कि हाल के एक अंक में उसने मसीह की मौत के स्मारक के बारे में एक लेख पढ़ा था। फिर उसने प्रभु संध्या भोजवाली शाम को अकेले ही स्मारक मनाया और बाकी का वक्त भजन संहिता की किताब पढ़ने में बिताया। हमारी बातचीत दोपहर को काफी देर तक चलती रही। जाने से पहले मैंने उसे बपतिस्मा के बारे में चंद बातें बतायीं। बाद में मैंने उसे सर्किट सम्मेलन में आने का निमंत्रण भेजा, जो सन् 1954 की शुरूआत में होनेवाला था। वह उस सम्मेलन में आया। और जिन 26 लोगों ने बपतिस्मा लिया, उनमें भाई पाऊली भी एक था। आज भी जब मैं ऐसे अनुभव याद करता हूँ, तो मुझे बहुत खुशी होती है।
रोज़ा: अक्टूबर 1948 को मैंने पायनियर सेवा शुरू की। पहले मैंने बेलजियम के पास, अनोर नाम के कस्बे में काम किया। इसके बाद मुझे ईर्रेना कॉलौंस्की (अब लॉरवा) नाम की एक पायनियर बहन के साथ पैरिस भेजा गया। हम दोनों शहर के बीचों-बीच सर्जेर्मा दे प्रे नाम के इलाके में एक छोटे-से कमरे में रहते थे। गाँव में पली-बढ़ी होने की वजह से मैं पैरिस के शहरी लोगों से बात करने के खयाल से डरती थी। मैंने सोचा कि वे बहुत मॉडर्न और तेज़ होंगे। लेकिन कुछ समय प्रचार करने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि वे भी दूसरी जगहों के लोगों की तरह आम इंसान हैं। अकसर प्रचार में जब हम बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में जाते, तो वहाँ के दरबान हमें भगा देते थे। और हमें लोगों के साथ बाइबल अध्ययन शुरू करना मुश्किल लगता था। फिर भी कुछ लोगों ने हमारे संदेश को कबूल किया।
सन् 1951 में एक सर्किट सम्मेलन में, पायनियर सेवा के बारे में ईर्रेना और मेरा इंटरव्यू लिया गया। पता है इंटरव्यू लेनेवाला भाई कौन था? मैरियौं शुमिगा नाम का एक जवान सर्किट ओवरसियर। हम पहले भी एक बार मिल चुके थे, मगर उस सम्मेलन के बाद से हम दोनों एक-दूसरे को खत लिखने लगे। मैरियौं और मेरी ज़िंदगी की काफी बातें मिलती-जुलती थीं, जैसे हम दोनों का बपतिस्मा एक ही साल में हुआ था और हम एक ही साल में पायनियर बने। सबसे खास बात यह थी कि हम दोनों अपनी ज़िंदगी पूरे समय की सेवा में बिताना चाहते थे। इसलिए हमने प्रार्थना की और काफी सोच-विचार के बाद, जुलाई 31, 1956 को शादी कर ली। शादी से मेरी ज़िंदगी का रुख ही बदल गया। अब मुझे न सिर्फ एक पत्नी की ज़िम्मेदारियाँ सीखनी थीं बल्कि मैरियौं को सर्किट काम में भी मदद देनी थी। इसका मतलब था कि अब मुझे हर हफ्ते एक अलग जगह ठहरना पड़ता। शुरू-शुरू में यह काम मुझे बहुत मुश्किल लगा, मगर आगे चलकर हमें कई आशीषें मिलनेवाली थीं।
खुशियों भरी ज़िंदगी
मैरियौं: बीते सालों के दौरान, हमें कई अधिवेशनों की तैयारी में मदद करने का अनोखा अवसर मिला। खासकर सन् 1966 में बॉर्रदू में हुआ सम्मेलन मेरे लिए एक खूबसूरत यादगार है। उस वक्त पुर्तगाल में यहोवा के साक्षियों के काम पर रोक लगा दी गयी थी। इसलिए सम्मेलन का कार्यक्रम पुर्तगाली भाषा में भी पेश किया गया ताकि पुर्तगाल के उन साक्षियों को फायदा हो जो फ्रांस आ सकते थे। पुर्तगाल से सैकड़ों मसीही भाई-बहन यहाँ आए। मगर अब मुश्किल यह थी कि उन्हें कहाँ ठहराएँ। बॉर्रदू में साक्षियों के घरों में ज़्यादा कमरे नहीं होते थे, इसलिए हमने एक खाली सिनेमा थियेटर किराए पर लिया और उसे एक डॉर्मेट्री में बदल दिया। हमने सारी कुर्सियाँ निकाल दीं और स्टेज के एक पर्दे को हॉल के बीचों-बीच इस तरह लगा दिया कि अब दो डॉर्मेट्री बन गयीं, एक भाइयों के लिए और दूसरी बहनों के लिए। हमने वॉश-बेसिन और नहाने-धोने के वास्ते नल लगाए। हॉल के पक्के फर्श पर हमने सूखी घास बिछाकर उस पर कैनवस की परतें चढ़ा दीं। हर कोई इस इंतज़ाम से खुश था।
अधिवेशन के सेशनों के बाद हम डॉर्मेट्री में रहनेवाले भाई-बहनों से मिलने जाते थे। वहाँ क्या ही खुशनुमा माहौल था! ये भाई-बहन सालों से विरोध सह रहे थे, फिर भी उन्हें बढ़िया अनुभव मिले। उनके बारे में सुनकर हमारा विश्वास काफी मज़बूत हुआ। सम्मेलन खत्म होने पर जब वे अपने देश लौट रहे थे, तो हम सब की आँखों में आँसू थे।
एक और आशीष मुझे इस अधिवेशन के दो साल पहले, सन् 1964 में मिली। मुझे डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर के नाते सेवा करने को कहा गया। एक बार फिर मुझे लगा कि क्या मैं इस काम के काबिल हूँ। लेकिन फिर मैंने खुद को समझाया कि जब ज़िम्मेदारी के पद पर रहनेवाले भाइयों ने मुझे यह काम सौंपा है, तो वे ज़रूर मुझे इसके काबिल समझते होंगे। डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर के नाते दूसरे सफरी ओवरसियरों के साथ मिलकर सेवा करना मेरे लिए एक बढ़िया अनुभव रहा। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। उनमें से कई भाई धीरज धरने और लगन से काम करने में वाकई अच्छी मिसाल हैं। ये ऐसे गुण हैं जिन्हें यहोवा अनमोल समझता है। मैंने अपने तजुर्बे से जाना कि अगर हम धीरज से काम लें, तो यहोवा हमें अपनी सेवा में इस्तेमाल करेगा, फिर चाहे हम जहाँ भी रहें। वह हमें कभी नज़रअंदाज़ नहीं करेगा।
सन् 1982 में शाखा दफ्तर ने हमें पैरिस की सीमा पर, बसाबूलॉन्या-बीयौंकूर नाम के कस्बे में रहनेवाले 12 पोलिश प्रचारकों के छोटे समूह की भी मदद करने को कहा। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे यह काम दिया जाएगा। हालाँकि मैं पोलिश भाषा में आध्यात्मिक शब्द जानता था, मगर मुझे वाक्य बनाकर बोलने में मुश्किल होती थी। फिर भी वहाँ के भाइयों ने खुशी-खुशी मेरी मदद की और मुझे सहयोग दिया इसलिए मैंने काफी तरक्की की। आज उस कलीसिया में करीब 170 प्रचारक हैं जिनमें से तकरीबन 60 पायनियर हैं। बाद में, रोज़ा और मैंने ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और जर्मनी की कलीसियाओं और पोलिश समूहों का भी दौरा किया।
हालात बदले
अलग-अलग कलीसियाओं का दौरा करना ही हमारी ज़िंदगी थी। मगर जब मेरी सेहत बिगड़ने लगी तो हमें सन् 2001 में सफरी काम छोड़ना पड़ा। हम पीतीव्ये नाम के कस्बे में एक अपार्टमेंट में रहने लगे। उसी कस्बे में मेरी बहन, रूत भी रहती है। शाखा दफ्तर की मेहरबानी थी कि उसने हमें स्पेशल पायनियर का काम सौंपा और हमें अपने हालात के मुताबिक जितना हो सके, उतने घंटे सेवा करने को कहा।
रोज़ा: सर्किट काम छोड़ने के बाद मेरा पहला साल बड़ा मायूसी भरा गुज़रा। यह बदलाव इतना बड़ा था कि मैं खुद को बिलकुल नकारा समझने लगी। लेकिन फिर मैंने खुद से कहा: ‘तुम अब भी एक पायनियर के नाते अपने समय और अपनी ताकत का अच्छा इस्तेमाल कर सकती हो।’ आज मैं खुश हूँ कि मैं अपनी कलीसिया के दूसरे पायनियरों के साथ सेवा कर पा रही हूँ।
यहोवा ने हमेशा हमारी देखभाल की
मैरियौं: मैं यहोवा का बहुत एहसानमंद हूँ कि उसने मुझे रोज़ा जैसी हमसफर दी, जिसने पिछले 48 सालों से मेरा साथ निभाया है। सफरी काम के उन सालों के दौरान, उसने मेरी बहुत मदद की। एक बार भी उसने ऐसा नहीं कहा: ‘काश, हम यह काम छोड़ देते और हमारा अपना एक घर होता!’
रोज़ा: कभी-कभी कुछ लोग मुझसे कहते थे: “आप लोग एक आम ज़िंदगी नहीं जी रहे हैं। आपको हमेशा दूसरों के यहाँ ठहरना पड़ता है।” लेकिन सच पूछो तो “आम ज़िंदगी” क्या होती है? अकसर हम इतनी ढेर सारी चीज़ें बटोर लेते हैं कि वे आध्यात्मिक कामों में रुकावट बन सकती हैं। असल में देखें तो हमें ज़िंदगी में क्या चाहिए? बस एक बिस्तर, एक मेज़ और कुछ बुनियादी चीज़ें। पायनियर सेवा करते वक्त हमारे पास घर-बार, पैसा कुछ नहीं था। मगर हमारे पास ऐसी हर चीज़ थी जो यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए ज़रूरी है। कभी-कभी कोई मुझसे पूछता, “जब आप बूढ़े हो जाओगे तो क्या करोगे, आपके पास न तो अपना घर होगा और ना ही आपको पेन्शन मिलेगी।” तब मैं जवाब में भजन 34:10 के ये शब्द दोहराती थी: “यहोवा के खोजियों को किसी भली वस्तु की घटी न होवेगी।” यहोवा ने हमेशा हमारी देखभाल की है।
मैरियौं: रोज़ा ने बिलकुल ठीक कहा! सच तो यह है कि यहोवा ने हमें ज़रूरत-से-ज़्यादा चीज़ें दी हैं। मसलन, सन् 1958 में मुझे न्यू यॉर्क में होनेवाले अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए अपने सर्किट का प्रतिनिधि चुना गया। लेकिन हमारे पास रोज़ा के वास्ते टिकट खरीदने को पैसे नहीं थे। फिर हुआ यह कि एक शाम को एक भाई ने हमें एक लिफाफा दिया जिस पर लिखा था, “न्यू यॉर्क।” उसमें रखे पैसों से रोज़ा भी मेरे साथ न्यू यॉर्क आ सकी!
रोज़ा और मुझे इस बात का कोई पछतावा नहीं कि हमने अपनी पूरी ज़िंदगी यहोवा की सेवा में बितायी। हमने खोया तो कुछ नहीं, मगर पाया सब कुछ—पूरे समय की सेवा में ढेरों आशीषें और खुशियाँ। हमारा परमेश्वर यहोवा कितना बेमिसाल है! हमने उस पर पूरा भरोसा रखना सीखा और उसके लिए हमारा प्यार दिन-ब-दिन बढ़ता गया। हमारे कुछ मसीही भाइयों को यहोवा के वफादार रहने के लिए अपनी जान देनी पड़ी है। मैं मानता हूँ कि एक इंसान को भले ही अपनी वफादारी के लिए जान न देनी पड़े, मगर वह यहोवा की सेवा में हर दिन थोड़े-थोड़े त्याग करे तो यह भी एक तरह से अपनी जान देने जैसा है। रोज़ा और मैंने आज तक ऐसा ही किया है, और हमने ठान लिया है कि हम आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे।
[फुटनोट]
a लूई प्येशुता की जीवन-कहानी, “मौत के खौफनाक सफर से मैं ज़िंदा बचा,” अगस्त 15, 1980 की प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी) में प्रकाशित की गयी थी।
[पेज 20 पर तसवीर]
करीब सन् 1930 में, फ्रौंसुता और आना शुमिगा और उनके बच्चे, स्तीफानी, स्तीफाना, मिलानी और मैरियौं। मैरियौं स्टूल पर खड़ा है
[पेज 22 पर तसवीर]
ऊपर: सन् 1950 में, उत्तरी फ्रांस के आरमैतिचेर में एक मार्केट की स्टाल के पास बाइबल साहित्य पेश करते हुए
[पेज 22 पर तसवीर]
बायें: सन् 1950 में स्तीफान बेहूनिक के साथ मैरियौं
[पेज 23 पर तसवीर]
सन् 1951 में रोज़ा (बायें से पहली) अपनी साथवाली पायनियर बहन ईर्रेना (बायें से चौथी) के साथ, वे दोनों एक सम्मेलन की सूचना दे रहे हैं
[पेज 23 पर तसवीर]
मैरियौं और रोज़ा, अपनी शादी से पहलेवाले दिन
[पेज 23 पर तसवीर]
उन दिनों सर्किट काम में ज़्यादातर साइकिल से दौरे किए जाते थे